पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२५२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समेट, दल बांध , फिर युद्ध करने लगे । इस समय परिघ उठा , दूषण ने विकट पराक्रम दिखाया । “ वह परिघ बड़ा विकराल था । उससे उसने अनेक शत्रुओं के नगरों के फाटक तोड़े थे। वह उस भयंकर लोहे की कीलों वाले परिघ को लेकर ज्यों ही झपटा, उस पुरुष ने दस बाण उसके मुख में मारे , जो उसके हलक को चीरकर ब्रह्माण्ड के पार हो गए। फिर फुर्ती से उसने उसके दोनों हाथ काट लिए तथा नेत्र भी फोड़ दिए। दूषण वहीं भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा । इसके बाद महाकाल, स्थूलाक्ष, प्रमाथी आदि महारथी भटों को लेकर खर आगे बढ़ा । किसी ने पटिश उठाया , किसी ने परशु, किसी ने गदा । खर ने धनुष लिया । पर उस तेजस्वी ने कर्णिक बाणों से सभी को बींध डाला । वे सभी भट झूम - झूमकर प्राण त्यागने लगे । इस प्रकार देखते - ही - देखते राक्षसों की सारी सेना कट गई । जो शेष बचे, वे भाग खड़े हुए । केवल दो ही वीर मुर्दो से पटे रण - क्षेत्र में रह गए -त्रिशिरा और खर । परन्तु इन दोनों वीरों को भी राम ने देखते -देखते धराशायी कर दिया । उस पराक्रमी राजकुमार ने उनके हाथ - पैर काट डाले । " इस प्रकार जनस्थान राक्षसों से रहित हो गया । हमारा साम्राज्य भंग हो गया । भाई , युद्ध- क्षेत्र ही में घावों और रक्त से भरे हुए उस तपस्वी राजकुमार का शरभंग, अगस्त्य आदि तपस्वियों ने अभिनन्दन किया । मैं तो खीझ के मारे मर गई। मेरा जीवन धिक्कार के योग्य हो गया । तूने जब मेरे पति का वध किया था , उस असह्य दुःख को न सहकर मैंने चितारोहण करना चाहा था । उस समय तूने मुझे उस काम से रोक दिया था । परन्तु भाई , अब यदि तू मेरा प्रिय न करेगा, अंग -भंग करने वाले उस राज्य- भ्रष्ट राजकुमार को मारकर उसका हृत्खण्ड मुझे लाकर खाने को न देगा तो मैं अब अपने प्राण नहीं रखूगी । अग्नि में जलकर मर जाऊंगी । ____ “ अरे भाई, त तो लोक में त्रिविक्रम प्रसिद्ध है । तने तीनों लोकों को जय किया है । अरे , यम और कुबेर को तूने आक्रान्त किया , इन्द्र को बन्दी बनाया , पृथ्वी पर तेरा साम्मुख्य करने वाला वीर कौन है ? फिर इस दुष्ट तपस्वी वनवासी पुरुष ने मेरा अंग - भंग किया है। मैं तो उससे विवाह कर उसे प्रतिष्ठित करना चाह रही थी । मैं त्रिलोकीपति रावण , अजेय कुम्भकर्ण की बहन , इन्द्रजित् मेघनाद की बुआ, आज ऐसी विपन्नावस्था को पहुंच गई ! अरे भाई, जब तक तू उस तपस्वी कुकर्मी को मार उसका हृत्खण्ड मुझे खाने को नहीं देता और उसकी उस मानुषी स्त्री का हरण कर उसे अपनी दासी नहीं बनाता , तब तक तेरा त्रिलोकीपति होने का दम्भ केवल विडम्बना है- और यह तो ध्रुव समझ कि राक्षसों का अब अन्त ही आ गया है। आज नहीं तो कल , राक्षसों का अब पराभव ही होगा । " मन्त्रियों के समक्ष बहन सूर्पनखा के ऐसे मर्मान्तक वचन सुनकर रक्षेन्द्र रावण वज्र- गर्जना कर उठा । उसने कहा - "मैं अग्नि को भी भस्म कर सकता हूं । सूर्य के प्रकाश को भी बुझा सकता हूं । मृत्यु मेरे भय से कांपती है। सो मेरे रहते उस क्षुद्र मनुष्य ने तेरी ऐसी दुर्दशा कर डाली ! महाबली खर , दूषण और त्रिशिरा सहित मेरे चौदह सहस्र राक्षसों को उसने अकेले ही मार डाला! यह तो उस चमत्कार से भी बढ़कर है, जो मैंने जनकपुर में देखा था । परन्तु मैंने तो उसे निपट बालक ही समझकर छोड़ दिया था । मैं ऐसा जानता तो वहीं सब नृपतियों के सम्मुख उसे मारकर वह स्त्री छीन लाता। ” कुछ ठहरकर फिर रावण ने