पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२४१

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69 . सारं श्वसुरमन्दिरम् अपने यशस्वी जामाता रावण की अभ्यर्थना के लिए मय ने सब दैत्य - दानव और असुर सम्बन्धियों को बुलाकर विराट भोज का आयोजन किया । सम्पूर्ण दैत्यलोकों तथा पातालों से दैत्य -दानव आने लगे। उसके साथ अनेक दैत्य -पार्षद और सैनिक थे । सुभाय , तन्तुकक्ष, विकटाक्ष, प्रकम्पन , नमुचि , धूम्रकेतु, मायाकाम तथा अन्य सगे - सम्बन्धी दैत्य दानव, राजा और भूमिपति एकत्रित हए। सभा भरी। परस्पर यथायोग्य वन्दना कर सब बैठे । मय ने सबका यथायोग्य सम्मान किया । अब भोजन की पंक्ति बैठी तो दस योजन विस्तृत भूमि में भोज हुआ । विविधा प्रकार के भुने -तले मांस , समूचे मृग , शूकर , लाव , तीतर, बत्तख , हंस , चक्रवाक , कपोत, कुक्कुट आदि के स्वादिष्ट मांस के साथ सुवासित मदिरा का खूब पान हुआ । दानवेन्द्र मय ने नाना प्रकार के भक्ष्य , भोज्य, लेह्य आदि षड्रस युक्त दिव्य अन्न - भोजन प्रस्तुत किए। भोजन से निवृत्त हो दानव - दैत्य - रत्न सभा में जा बैठे , जहां अनेक दैत्य -बालाएं नृत्य कर रही थीं । सभी दैत्य -दानव वहां बैठे रत्न -मणि की प्यालियों में भर - भर मद्य पीने तथा दैत्य -बालाओं का नृत्य देखने लगे । नमुचि दानव की कन्या विलासिका का नृत्य देख सभी जन विभोर हो गए । विलासिका की कान्ति से दिशाएं प्रकाशित हो उठीं । अपनी दृष्टि से अमृत की वर्षा करती हुई वह दानव - बाला ऐसी प्रतीत हो रही थी , जैसे चन्द्रमा की मूर्ति ही पृथ्वी पर अवतरित हुई हो । ललाट में तिलक, पैरों में नूपुर , मनोहर दृष्टि , नृत्य करने में वह मूर्त कला - सी हो उठी । उसके घुघराले बाल , उज्ज्वल और सम दन्त -पंक्ति , उत्तम पीन स्तन उस नृत्य में विलास -वाहक हुए । उस दानवी के नृत्य को देख रावण कामविमोहित हो गया । थक जाने पर नृत्य बन्द कर वह दानव -बाला जब तिरछी नजर से उस जगज्जयी रावण को देखती हुई , पिता की आज्ञा से उसे ऋजु प्रणाम निवेदन कर चली गई, तब रावण भी मन्त्रियों सहित उठकर अपने शयन - मन्दिर में आया । विलासिका की याद कर वह लम्बी - लम्बी सांसें खींचने लगा । अर्धरात्रि व्यतीत होने पर विलासिका अपनी दो सखियों - सहित वहां आई और रावण के शयन -कक्ष में जाने लगी । तब पहरे पर जागते हुए मन्त्री प्रहस्त ने कहा - “ हे राजपुत्री , तनिक ठहर । मैं तेरे आगमन की सूचना रक्षेन्द्र को दे दूं। ” दानव राजकन्या ने कहा - “ भद्र, तू मुझे भीतर जाने से किसलिए रोकता है? " " महाभागे , सोते हुए पुरुष के पास सहसा नहीं जाना चाहिए। फिर हमारा स्वामी व्रती है। " “ अच्छा तो भद्र , तू उसे सूचित कर। " रावण ने विलासिका का आना सुना तो वह बाहर आकर उसकी अभ्यर्थना करता हुआ बोला — “ सुन्दरी, तूने अपने आगमन से इस अभ्यागत को कृतार्थ किया है। अब आसन ग्रहण कर इस स्थान को भी कृतार्थ कर! "