“ अब तो तुमने उसे मार डाला । " " परन्तु तू ? " " तुम्हारे अधीन हूं । " “ यदि मैं तेरा वध करूं ? " " करो। " “ और प्यार? " "करो। " " तू भयभीत नहीं है? " " क्या तुमसे ? " " नहीं , इस खड्ग से ? " " नहीं । " " क्यों भला? " " तुम जो मेरे निकट हो । तुम्हारे निकट रहते मुझे भय क्या ! " मय की आंखों से अश्रुधारा बह चली । खड्ग की नोक भूमि में गड़ाकर वह पृथ्वी पर झुक गया । हेमा ने आकर उसका सिर अपने वक्ष में ले लिया । बहुत देर बाद मय ने कहा “ घर चल , हेमा ! " " चलो ! " और दोनों उस बन्दीगृह से बाहर आए । रावण ने सब बातें जानीं , पर उसने सास की अभ्यर्थना नहीं की । फिर भी वह उसके अदैन्य पर चकित था । उसने कहा — “मातः, मैं तेरी अभ्यर्थना नहीं कर सकता । " " कैसे कर सकता है पुत्र , मुझसे घृणा करने का तुझे अधिकार है । " “ मैं तुझसे घृणा नहीं करता मातः, परन्तु तूने अपराध तो किया है। " " इसका विचार तू नहीं कर सकता पुत्र , तेरी पत्नी का पिता — मेरा पति — कर सकता है, सो उसने कर लिया है। " तो मातः, तेरा अब मैं क्या प्रिय करूं ? " । “ इस उरपुर में हमारा अभिनन्दन ग्रहण करके मुझे संप्रहर्षित कर। " “ यह उरनगर तो मैंने अपने श्वसुर महाभाग मय को दिया है। " " तो उसकी पत्नी मैं यहां की स्वामिनी हूं ; तेरा अभिनन्दन करती हूं, तू हमारा जामाता है, पूजार्ह है , अतिथि है , अभिनन्दनीय है, मेरे पति पर तेरा उपकार है । " " तो मातः, मेरे इस कार्य से क्या तुझे दुःख नहीं हुआ ? " । " पुत्र, सभी के सुख -दु: ख से तेरा क्या प्रयोजन है तथा गुरुजनों के गुण -दोष के विवेचन का यह क्या अवसर है? यदि सत्य ही तूने हमें उरनगर का स्वामी बनाया है, तो जामाता की भांति हमारा अभिनन्दन ग्रहण कर । " रावण ने स्वीकार किया और तब मय दानव और उसकी पुनरागता पत्नी हेमा अप्सरा ने उरपुर में रावण और राक्षस सैन्य के सत्कार का आयोजन धूमधाम से किया ।
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