इन तीनों भाइयों का दैत्य - परिवार वृद्धिगत होकर सुपूजित हुआ । सम्पदा भी बहुत बढ़ी । अपने प्रबल पराक्रम से इन तीनों भाइयों ने पुत्र -पौत्र - परिजनों के साथ आसपास के द्वीपों को विजित कर अतोल मणि , माणिक्य , स्वर्ण एकत्र कर लिया । इसी समय तृतीय देवासुर - संग्राम का संकट आ उपस्थित हुआ । इस संग्राम का मूल कारण काश्यप सागर तट में प्राप्त वे स्वर्ण की खानें थीं , जो हिरण्यकश्यप को प्राप्त हुई थीं और जिन पर अभी तक दैत्यों ही का अधिकार था । जिस समय समुद्र-मंथन हुआ और देवों , असुरों तथा नागों ने मिलकर प्रथम बार काश्यप सागर को पार किया तो भाग्य से दैत्यों ही को ये स्वर्ण खानें मिलीं । धर्मत : उन्हीं का उन पर आधिपत्य रहा । परन्तु देवों के नेता विष्णु ने छल - बल से वह प्राप्त सुवर्ण हथिया लिया । वह लक्ष्मी शायद वही थी । इस पर द्वितीय देवासुर -संग्राम हुआ और हिरण्यकश्यप की मृत्यु हुई । परन्तु इसके बाद हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद ने विष्णु से मैत्री- सन्धि कर ली तथा देवों की ओर से दैत्यों को विष्णु ने यह वचन दिया कि अब दैत्यों का रक्त पृथ्वी पर नहीं गिरेगा । परन्तु हिरण्यपुर और वहां का सारा स्वर्ण - भण्डार दैत्यों ही के अधिकार में था । दैत्य उसके कारण अधिक सम्पन्न थे। यह बात देवों के नेता विष्णु को बहुत खल रही थी । उसका तर्क यह था कि दैत्यपति हिरण्यकश्यप का वंश और उसका वंश एक ही दादा की सन्तान हैं । दोनों ही के दादा मरीचि - पुत्र कश्यप हैं । अत : हमें आधा स्वर्ण -प्रदेश और काश्यप सागर -तट मिलना चाहिए। उधर विष्णु ( सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु ( एलम ) का निवास छोड़ भारत में आर्यावर्त की स्थापना कर चुके थे। इसलिए दैत्यों का यह जवाब था कि प्रथम तो सूर्य (विष्णु ) का मूलवंश यहां अब है ही नहीं , दूसरे स्वर्ण- प्रदेश हमारे दादा का पैतृक नहीं है, हमारा अपना अर्जित है । इसमें से आधा हम देवों को क्यों दें ? झगड़ा बढ़ता ही गया । प्रह्लाद की मैत्री कुछ काम न आई और प्रथम प्रह्लाद- पुत्र विरोचन का समर - क्षेत्र में देवों ने वध किया । फिर तुमुल देवासुर - संग्राम में देवों की छल - बल से जय हुई । बलि बन्दी हुआ। ये तीनों दैत्य -बन्धु भी इस विकट संग्राम में सेना सहित पराजित हुए। इस संग्राम में इनके सारे भट और परिजन मारे गए। बड़ा भाई माली तो रणभूमि में ही काम आया । समाली और माल्यवान सब सहायक सेना और परिजनों का विनाश तथा दैत्यराज के पतन से हतप्रभ, विक्षिप्त और शोकग्रस्त हो , लज्जा , क्षोभ, भय तथा ग्लानि के मारे लंका लौटे ही नहीं पाताल में जाकर छिप गए । कुछ ग्लानि से और कुछ देवों के भय से उनका साहस लंका में जाने का न हुआ। आजकल जिस स्थान को अबीसीनिया कहते हैं , उन दिनों वही पाताल कहाता था । सुमाली के इस स्थान को आज भी सुमालीलैंड कहते हैं । वह स्थान अफ्रीका के पूर्वी भाग में है । इससे लंका चिरकाल तक सूनी , उजाड़ और अरक्षित, बिना स्वामी की नगरी की भांति विपन्नावस्था में पड़ी रही । उसी सूनी लंका पर वैश्रवण ने लोकपाल धनेश कुबेर होकर आर्य नेताओं और देवों की सहमति से अधिकार कर लिया । बहत काल बीतने पर समाली फिर अपने गप्तवास से प्रकट हआ । इस समय सुमाली वृद्ध हो चला था । उसके साथ उसकी षोडशी पुत्री कैकसी और ग्यारहों पुत्र थे। वे सभी तरुण थे। उसकी इच्छा थी कि वह किसी प्रकार अपनी लंका का उद्धार करे और उसी में अपने इस प्रतिष्ठित दैत्यवंश को फिर से स्थापित करे । परन्तु अग्नि के समान तेजस्वी कुबेर लोकपाल को देख उसका साहस न हुआ । वह सोचने लगा कि अब मैं ऐसा कौन - सा
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