परशु उठा आगे बढ़ा। उसे देख कुबेर ने कहा, “ अरे दुर्बुद्धि रावण , तू मेरा निवारण भी नहीं मानता । अरे, जो माता-पिता और गुरुजनों का अपमान करता है , वह तो महा अधर्मी है । परन्तु अब इन बातों से क्या ? अब तू अपने कर्मों का फल भोग ! ” इतना कह उसने रावण पर गदा से वार किया । कुबेर के प्रताप और तेज से व्याकुल होकर रावण के सभी मन्त्री भयभीत होकर भाग गए, पर रावण अचल खड़ा रहा। जब कुबेर ने दुबारा गदा का प्रहार करना चाहा तो रावण ने भी प्रहार किया । अब दोनों भाइयों में भयंकर युद्ध होने लगा । लड़ते - लड़ते कुबेर ने रावण पर आग्नेयास्त्र छोड़ा । इसका निवारण रावण ने वरुणास्त्र से किया । फिर रावण ने अनेक कौशल किए, अन्त में रावण का गहरा आघात मस्तक पर खाकर कुबेर मूर्छित होकर भूमि पर गिर गया । यह देख उसके सेवक उसे उठाकर रथ में बैठाकर ले भागे। रावण यह देख प्रसन्न हुआ । उसने कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया , जिसमें सोने के खम्भे , वैदूर्य मणि के द्वार और मोतियों की झालरें टंगी थीं । इस पुष्पक का वेग मन के समान था । इसकी सीढ़ियां सोने की थीं और इसमें ठौर -ठौर रत्न जड़े थे । यह विमान त्वष्टा विश्वकर्मा ने कबेर के लिए बनाया था । रावण ने विमान को प्राप्त कर तीनों लोकों को जय किया समझा और वह तेजी से हिमालय को लांघकर देवाधिदेव रुद्र के निकेतन कैलास -शिखर पर जा चढ़ा । कैलासी ने प्रसन्नवदन हो रावण की अभ्यर्थना की । रावण ने कैलासी रुद्र के चरणों पर मस्तक रख उन्हें प्रणिपात किया और बद्धांजलि हो अनुग्रह-याचना की । रुद्र ने कहा - “ भद्र वैश्रवण, तेरे पुत्र मेघनाद को हमने अपने सब दिव्यास्त्र दे दिए हैं । अब वह देव दैत्य सभी से अजेय है । अब कह , तेरा और क्या प्रिय करूं ? " रावण कृतकृत्य हो गया । इसी समय मेघनाद ने पिता के चरण छुए । रावण ने पुत्र को छाती से लगा , स्नेह से सिर सूंघा ; फिर वह पुत्र को साथ ले , रुद्र की अनुमति ले तीव्र गति से कैलास के नीचे उतरा । परन्तु कैलास ही के मार्ग में उसकी भेंट नारद वामदेव से हो गई । नारद को देख रावण ने उन्हें प्रणिपात किया और अपना मन्तव्य सुनाकर कहा - “ देवर्षि, कहो , कैसे मेरा मनोरथ पूरा होगा ? " नारद ने कहा - “ सुन विश्रवा मुनि के पुत्र , तेरे पराक्रम, साहस और भावना से मैं बहुत प्रसन्न हूं । पर तू यहां आर्यावर्त में क्या कर रहा है ? तू देव , दानव , दैत्य , यक्ष , गन्धर्व सभी को पराजित करने की सामर्थ्य रखता है, तू अपवर्त जा । वहां यम , वारुणेय , इन्द्र देवराट् हैं , उन्हें जय कर । फिर नागों को पाताल में विजय कर। तब तेरा मनोरथ फलेगा। " रावण ने हंसकर कहा - “ देवर्षि, मैं ऐसा ही करूंगा। " इतना कह नारद अपनी राह लगे और रावण ने भी अपवर्त की राह पकड़ी। अब वह मित्रावसु गन्धर्व की पुरी में पहुंचा, जहां उसका भव्य स्वागत हुआ । चिर -विरहिणी चित्रांगदा से मिलकर हृदय - ग्रन्थि खोली , मान- मनौवल हुआ। चित्रांगदा के मनोरथ पूर्ण कर तथा शीघ्र लौटने का वचन दे, अपने श्वसुर मित्रावसु से गन्धर्वो की सेना सहायतार्थ ले , रावण अपवर्त की ओर अग्रसर हुआ । अनरण्य का युद्ध में निधन तथा बालि वानरेन्द्र और माहिष्मती के सहस्रार्जुन की कथा रावण ने श्वसुर को कह सुनाई थी । इस पर मित्रावसु ने उसे अनेक सत्परामर्श दिए । चतुरंग चमू के साथ बहुत स्वर्ण, मणि और दिव्यास्त्र भी दिए ।
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