राम ने धनुष को भली- भांति निरीक्षण करके कहा “ इदं धनुर्वरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना । यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा ॥ " ऋषि और राजर्षि ने कहा - “ बाढम् ! " इतना सुनते ही राम ने हजारों राजाओं के देखते - देखते धनुष को दृढ़ हाथों में पकड़कर अधर में उठा लिया । फिर ज्यों ही उसकी प्रत्यंचा को चढ़ाने लगे, वज्रपात की भांति घोर शब्द करके धनुष बीच से टूट गया । सारी ही यज्ञ - भूमिस्थ सभा यह चमत्कार देख जड़- चकित रह गई। जनक ने हाथ उठाकर कहा ___ " दृष्टवीर्यो हि रामो दशरथात्मजः। सीता सुता मे भर्तारं राममासाद्य जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति । सा वीर्यशुल्केति मे सत्या प्रतिज्ञा। सीता रामाय मे देया । शीघ्र गच्छन्तु अयोध्यां त्वरिता रथैः मन्त्रिणो मम , आनयन्तु राजानं पुरम् । कथयन्तु सर्वशो वीर्यशुल्कायाः प्रदानम्। सीता ने जयमाला राम के कंठ में डाल दी । बन्दीजन विरुद बखानने लगे । रावण स्तम्भित हो यह चमत्कार देख रहा था । उसे सब कुछ चमत्कारपूर्ण लग रहा था । राम का किशोर वय , लावण्य , रूप और अतिविक्रम देख वह स्तम्भित हो गया था । जब धनुष टूट गया तो वह आश्चर्यचकित हुआ और जब जनक ने घोषणा की कि उसने वीर्यशुल्का कन्या को प्रदान कर दिया , तो वह कुछ विकल हुआ । कहीं एक अज्ञात टीस उसने अनुभव की । उसकी दृष्टि शारदीय शोभाधारिणी सीता पर अटक गई । उसने मुग्ध भाव से अपने ही मन में कहा - “ अहा, इस शीलवती के अंग को तो इसके वस्त्रों ने भी नहीं देखा होगा , जैसे आत्मा को शरीर नहीं देख पाता । " रावण को ध्यानमग्न देख बाण ने कहा " स्थितो मध्याह्नः दृढ़मस्मि परिश्रान्तः, विश्रमिष्ये। " परन्तु रावण ने अपने ही में डूबे हुए कहा “ अथ परिसमाप्तश्च चमत्कारः। " " भवतु नाम । ” “ अलीकमलीकं खल्वेतत् । " बाण खिलखिलाकर हंस पड़ा। हंसते -हंसते उसने कहा - “ भवतु ! गच्छामस्तावत् । " वह स्वर्ण सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। रावण ने भी खड़े होकर कहा “ अहमपि तत्र भवताभ्यनुज्ञातो गन्तुमिच्छामि । ” “ गच्छतु भवान् पुनर्दर्शनाय। " “ वन्दामि दैत्येन्द्र ! " रावण ने अपना परशु कन्धे पर रखा । वह धीर-मन्द गति से वहां पहुंचा जहां खण्डित धनुष पड़ा था और राम को जयमाला सीता ने पहनाई थी , उसके एकाध पुष्प , वहीं पृथ्वी पर सीता के चरण -चिह्न के समीप पड़े थे। उसने झुककर उस चरण-चिह्न की मृत्तिका जरा - सी उंगलियों के पोर में छूकर हृदय से लगाई । पुष्प की उन पंखुड़ियों को यत्न
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