“ आर्यावर्त और भरतखण्ड के प्रायः सभी राजा गए हैं ।पिनाकपाणि के विशेष अनुरोध से दैत्येन्द्र बाण महाकाल भी आया है, ऐसा सुना है। " " बाण आया है ? " “ ऐसा ही सुना है। " “ठीक है, अच्छा संयोग है। मैं भी जाता हूं। " “ क्या सैन्य - सहित ? " " नहीं, एकाकी। एक बार उस पिनाक धनुष को देखूगा । उन मानव -बालकों को भी और उस त्रैलोक्यसुन्दरी को भी । परन्तु मैं छद्मवेश में जाऊंगा। " “ क्या यह चिन्त्य नहीं है ? " “ मेरे इस परशु के रहते ? " “मेरा कहना है, सुरक्षा के लिए कुछ भट अवश्य साथ लेने चाहिए। " " नहीं , किन्तु राहकितने योजन है ? " । "ग्यारह योजन सुना है, परन्तु देखा नहीं है। यहां से तीन योजन पर शोण नदी पार करके जाना पड़ता है। " “ राह में कुछ राज्य - सीमाएं भी हैं ? ” " नहीं , कोसल राज्य से विदेह राज्य मिला हुआ है । " “ ठीक है, तो तु मारीच मातुल, शीघ्र आरोग्य लाभ कर और अपने बिखरे हए बल को एकत्र कर , फिर राक्षस - सैन्य को साथ ले गन्धमादन पर पहुंच, जहां मेरा वीर पुत्र मेघनाद और मातामह सुमाली तथा भाई कुम्भकर्ण कुबेर की अलका को आक्रान्त करने छद्मवेश में पहुंच चुके हैं । सब ज्ञातव्य बातों को जान और देवाधिदेव रुद्र से परामर्श कर अलका को आक्रान्त करने को तैयार रह । तब तक मैं आता हूं । " उसने अपने मन्त्रियों और सेनापतियों को भी आवश्यक आदेश दिए और कुछ सेना वहां नैमिषारण्य में रख , शेष को आगे बढ़ने का आदेश दे, उसने जनकपुरी की ओर एकाकी ही कन्धे पर परशु रखकर प्रस्थान किया ।
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