63. रावण की मुक्ति दर्जय परंतप रावण को बांधकर बन्दी बनाने से चक्रवर्ती हैहय कार्तवीर्य अर्जुन का यश दिग्दिगन्त में फैल गया । आर्यावर्त और भरतखण्ड - भर में उसका आतंक छा गया । राक्षसों के सेनापति और मन्त्री प्रहस्त , शुक , सारण , महोदर , धूम्राक्ष आदि भारी बहुमूल्य उपानय साथ ले चक्रवर्ती की सेवा में उपस्थित हुए। उपानय सम्मुख धर उन्होंने कहा - “ हे तेजस्वी हैहय , आपकी जय हो । आपने महापराक्रमी रक्ष - राज रावण को जय करके अपना सुयश पृथ्वी पर विस्तीर्ण कर दिया । आपका पराक्रम अतुलित है और आप पृथ्वी के सब वीरों में श्रेष्ठ हैं । जिस रावण के भय से समुद्र और वायु भी स्तम्भित हो जाते हैं , सूर्य भी तेजहीन हो जाता है , उसी दुर्जय रक्षपति रावण को आपने युद्ध में जय कर बन्दी बना लिया । किन्तु हे यशस्वी महाराज, अब आप उसे छोड़ दीजिए। आपका यह कार्य बन्दी बनाने से भी अधिक यशस्वी होगा । यह धन - रत्न - राशि उपानय की भांति तथा दण्डस्वरूप हम आपकी भेंट में उपस्थित कर रहे हैं । " राक्षस - मन्त्रियों के ये वचन सुन , प्रसन्न हो चक्रवर्ती ने हंसकर रावण को तुरन्त सभा -भवन में ले आने की आज्ञा दी । सभा में आने पर उसने उठकर स्वयं उसे बन्धनमुक्त किया , उसे दिव्यालंकार धारण कराए, और अर्घ्य, पाद्य , मधुपर्क देकर कहा - “ हे राक्षसराज, मैंने तो तेरा पहले भी माहिष्मती में मित्र की भांति स्वागत करना चाहा था , परन्तु तूने सन्धि नहीं, विग्रह मांगा , मैत्री नहीं, युद्ध -याचना की । सो मुझे समरांगण में तेरा शस्त्र से सत्कार करना पड़ा । पर इससे मैंने तेरा समर -कौशल और तेरी अजेय शक्ति देख ली । मैं तेरे शौर्य से सन्तुष्ट हूं। सो , हे प्रतापी पौलस्त्य , यदि तेरी इच्छा हो तो हम - तुम दोनों आज से अग्नि की साक्षी में समान मित्र होने की शपथ ले लें । " रावण ने दोनों हाथ फैलाकर कहा - “ चक्रवर्ती ने तो मुझे युद्ध-भिक्षा देकर पहले ही यथेष्ट गौरव प्रदान कर दिया था । अब मैत्री से सम्पन्न करके मुझे कृतकृत्य कर दिया । अग्न्याधान कर चक्रवर्ती! आज से हम जीवन में , मरण में , सुख में , दुःख में एक हैं । " चक्रवर्ती हैहय ने तुरन्त अग्नि की साक्षी में मैत्री-स्थापना की और रावण को हृदय से लगाकर कहा - “ हे पौलस्त्य , तू ऋषिकुमार तथा वेदों का उद्गाता है। संस्कृति का संस्थापक है । राक्षसों का स्वामी और सप्त द्वीपों का अधिपति है । तूने मुझसे अपनी रक्ष संस्कृति की बात कही थी । उस समय तू परशु- हस्त था । इससे शस्त्र ने शास्त्र नहीं सुनने दिया । अब तू स्नेहसिक्त है, हमारा अभिन्न मित्र है, अपनी संस्कृति का बखान कर । उसे सुनकर मैं प्रसन्न होऊंगा। " रावण ने कहा - “ चक्रवर्ती राजन् , यह मेरी लोकैषणा है। इसमें लोक हित निहित है। सुन , इस समय पृथ्वी पर देव , दैत्य , दानव , असुर , आर्य, व्रात्य , नाग , गन्धर्व, किन्नर , यक्ष , रक्ष आदि अनेक नृवंश विस्तार पा रहे हैं जो सब परस्पर दायाद- बान्धव हैं , किन्तु
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