3. अब से सात सहस्राब्दी पूर्व अब से सात सहस्राब्दी पूर्व जब बालीद्वीप के विजन वन में सरोवर के तट पर दैत्यबाला का अभिसार सम्पन्न हुआ तब तक नृवंश में विवाह-मर्यादा दृढ़ -बद्ध नहीं हो पाई थी । नर -नाग - देव - दैत्य - असुर - मानुष - आर्य- व्रात्य सभी में ऐसे ही मुक्त सहवास का प्रचलन था । उन दिनों भारत की भौगोलिक सीमाएं भी आज के जैसी न थीं । आंध्रालय से लेकर आंध्रद्वीप तक – बाली , यवद्वीप , स्वर्णद्वीप, लंका, सुमात्रा आदि द्वीप - समूह स्थल - संश्लिष्ट थे और इन द्वीपों में नर- नाग - देव - दैत्य -दानव -असुर -मानुष - आर्य- व्रात्य सभी नृवंश के जन एकसाथ ही रहते थे । कुशद्वीप भी तब तक भारतवर्ष से भूमि संश्लिष्ट था । उस समय तक विन्ध्य के उस पार भारतवर्ष के उत्तरापथ में आर्यावर्त था , जिसमें सूर्यमण्डल चन्द्रमण्डल नाम से दो आर्य राज्यसमूह थे। सूर्यमण्डल में मानव - कुल और चन्द्रमण्डल में इला से बना एलकुल राज्य करता था । उत्तरापद से ऊपर भारतवर्ष के सीमान्त पर पिशाचों, गन्धर्वो, किन्नरों, देवों और असुरों के जनपद थे। एलावर्त आदित्यों का मूल स्थान था , उरपुर और अत्रिपत्तन में देवों का आवास था और उनके पास काश्यप तट पर चारों ओर दूर तक असुर , गरुड़ , नाग , दानव , दैत्यों के खण्डराज्य फैले हुए थे । जिस तरुण ने दैत्यबाला को पौलस्त्य रावण वैश्रवण कहकर अपना परिचय दिया था , उसी की बात कहते हैं । वह मेधावी और तपस्वी तरुण उन दिनों आन्ध्रालय महाद्वीप से अपने साहसिक वीर साथियों सहित उत्तर - पश्चिम द्वीप -समूहों को जय करता हुआ स्वर्ण लंका की ओर जा रहा था । उसने भारत के समस्त दक्षिणी द्वीप- समूहों - अंगद्वीप ( सुमात्रा ) , यवद्वीप ( जावा ), मलयद्वीप (मलाया ), शंखद्वीप ( बोर्नियो ), कुशद्वीप ( अफ्रीका ) और वाराहद्वीप ( मेडागास्कर ) पर अधिकार कर लिया था । अब उसकी नजर चारों ओर समुद्र से घिरी हुई , बड़े- बड़े सोने के प्रासादों से सज्जित हुई स्वर्णलंका पर थी , जिसे उसने अपनी राजधानी बनाने को चुना था । उन दिनों लंका का अधिपति इस तरुण का सौतेला भाई लोकपाल धनेश वैश्रवण कुबेर यक्षराज था । आजकल जिस महाद्वीप को आस्ट्रेलिया कहते हैं , उस काल में उसका नाम आन्ध्रालय था । उन दिनों भारत और आस्ट्रेलिया के बीच इतना अन्तर था । लंका और मेडागास्कर की भूमि भी बहुत विस्तृत थी तथा भारत को आस्ट्रेलिया से जोड़ती थी । उन दिनों ये सब द्वीप भारत के अनुद्वीप माने जाते थे तथा इन द्वीपों का , जो एक - दूसरे से मिले जुले थे, विशाल भू - भाग लंका महाराज्य के अन्तर्गत था । जिस समय की घटना हम इस उपन्यास में वर्णित कर रहे हैं , उससे कुछ दशाब्दी पूर्व ही कान्यकुब्जपति कौशिक विश्वामित्र ने अपने पचास परिजनों को दक्षिणारण्य में निर्वासित कर दिया था । उन दिनों ऐसी परिपाटी आर्यावर्त में थी । आर्यजन दुषितजनों को दक्षिणारण्य में निर्वासित कर दिया करते थे। इन निर्वासित जनों के दक्षिणारण्य में बहुत
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