परन्तु जमदग्नि हैहयों का पिछला वैर नहीं भूले । ऋचीक ने बाल्यकाल ही से उनमें हैहय विरोधी भावना भर दी थी । वे हैहयों को अपना चिर शत्रु समझते थे। ऋचीक अप्रतिहत धनुर्धर थे। विश्वामित्र ने उन्हीं से धनुर्विद्या सीखी थी । प्रागैतिहासिक काल में नर्मदा निःसीम नदी थी । उसी के उत्तरी तट पर अर्जुन की नई राजधानी माहिष्मती थी । इस नगरी को , माहिष्मत ने कर्कोटक नाग से छीनकर सम्पन्न बनाया था । बाद में उसने शकों, यवनों , कम्बोजों , पारदों और पल्लवों की सहायता से नर्मदा से मथुरा तक का समूचा प्रदेश जीत लिया था । नगरी के पास नर्मदा का विस्तार समुद्र के समान था । उसमें सदैव ही सुमेरु पाताल , क्षीर- सागर, त्रिपुरी और सप्त महासागरों के द्वीप - समूहों के यान लंगर डाले पड़े रहते थे। सहस्रार्जुन का नौ - बल अजेय था । वह लहरों का स्वामी प्रसिद्ध था । उन दिनों माहिष्मती समूचे आर्यावर्त , भरतखण्ड, इलावर्त और दैत्य - राज्यों के व्यापारियों से परिपूर्ण रहती थी । पण्यों में आर्य, अनार्य, असुर , व्रात्य , नाग आदि सभी जातियों के वणिक् क्रय- विक्रय करते रहते थे । मथुरा से नर्मदा - तट तक समूची पृथ्वी का स्वामी उस समय सहस्रार्जुन हैहय था । हैहयों का जैसा राज्य - प्रताप था , वैसा ही भृगुओं का धर्म - प्रताप था । अनूप देश इन दोनों प्रतापी प्रतिद्वन्द्वियों का क्षेत्र था । यहां भृगुवंशी अधिक रहते थे। अनूप देश की सीमा पूर्व में चर्मण्वती, पश्चिम में समुद्र, दक्षिण में नर्मदा और उत्तर में आनर्त तक थी । भृगुवंशी यहां के हैहयों से भी पुराने निवासी थे। उनकी बहुत जमीन , जायदाद , जागीर और धन सम्पत्ति यहां थी । इसी से जब भृगुओं से सहस्रार्जुन का विग्रह हुआ तो वह बहुत उग्र रूप धारण कर गया । सहस्रार्जुन गर्वीली प्रकृति का था । वह भृगुओं का दो पीढ़ी पुराना वैर भूला नहीं - जमदग्नि के साथ रिश्ते के सूत्र में बंधकर भी नहीं । परन्तु भृगुवंशी अब उससे दूर सरस्वती - तट पर रहते थे । यह विग्रह नाम ही को रह गया था कि एक घटना आ घटी । जमदग्नि ने अपनी स्त्री रेणु को चित्ररथ गन्धर्व के साथ व्यभिचार -रत पा उसका सिर अपने छोटे पुत्र परशुराम के हाथों कटवा लिया । इस पर क्रुद्ध होकर उसके साढू सहस्रार्जुन ने अपनी स्त्री के अनुरोध से जमदग्नि के आश्रम को लूटकर उसे जला डाला । मथुरा तक हैहयों की राज्य- सीमा थी । मथुरा से आर्यावर्त निकट ही था । मथुरा आर्यावर्त और भारतवर्ष की सीमा पर था । सहस्रार्जुन की इस कार्रवाई से आर्यावर्त में बहुत उत्तेजना फैल गई और जमदग्निपुत्र परशुराम सहस्रार्जुन से पिता के आश्रम जलाने का बदला लेने की सोचने लगे । पाठक जानते ही हैं कि किस प्रकार हैहयों से जामदग्नेय राम ने बदला ले उनके रक्त से समन्तक तीर्थ में पांच रक्त - कुण्ड भरे थे ।
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