पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२१३

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गौएं दूंगा , इसके अतिरिक्त प्रभूत स्वर्ण भी ; परन्तु वशिष्ठ ने स्वीकार नहीं किया । इस युद्ध में पल्लवों, हिरातों, किरातों, काम्बोजों, बर्बरों और यवनों ने वशिष्ठ की सहायता के लिए युद्ध किया था । इस युद्ध में विश्वामित्र के सब पुत्र - परिजन खेत रहे थे, केवल एक ही पुत्र जीवित बचा था । अन्त में विश्वामित्र पराजय की लज्जा के कारण स्त्री - सहित जंगल में जा छिपे , जहां उनके चार पुत्र हुए - दृढ़नेत्र , हविष्यन्द , महारथ और मधुष्यन्द । वन में विश्वामित्र बहुत काल तक रहे। यहीं मेनका अप्सरा उनके साथ दस वर्ष रही । यहीं त्रिशंकु से सांठ -गांठ कर उन्होंने वशिष्ठ से वैर साधा । त्रिशंकु भी वशिष्ठ से खार खाए बैठा था । यह सारी कथा पाठक जानते ही हैं । परन्तु इस वैर - भावना के मूल में एक और भावना भी थी कि विश्वामित्र के वंश का महाप्रतिष्ठ भृगुवंशियों से सम्बन्ध हो चुका था । ऋचीक ने एक सहस्र श्यामकर्ण घोड़े देकर विश्वामित्र की बहन से ब्याह किया था तथा बहन के पुत्र जमदग्नि और विश्वामित्र दोनों ही ने ऋचीक के आश्रम में वेद और शस्त्र -विद्या ग्रहण की थी । साथ - ही - साथ हैहयों से वैर की भावना भी । इससे विश्वामित्र में जो वैर - भावना का बीज तथा शस्त्र - साधना का बल तथा राज - भोग और राज्य - भ्रष्ट होकर वन में छिपने के संयोग आए, तो उनकी क्रोध - भावना और वैर -भावना मूर्त हो उठी, जिसने वशिष्ठ का एक प्रकार से वंश -नाश करके ही दम लिया । विश्वामित्र के बहनोई ऋचीक जैसे वेदर्षि थे, वैसे ही मन्त्र , यन्त्र , तन्त्र और शस्त्र विद्या में भी एक थे । उन्होंने विश्वामित्र को अनेक दिव्यास्त्र दिए । दण्ड - चक्र , काल - दण्ड , कर्म - चक्र , विष्णु - चक्र तथा इन्द्र - चक्र ; वज्र , शिवशूल , ब्रह्मास्त्र और इषीकास्त्र जो मन्त्र -बल से चलते थे , उन्होंने दिए। मोदकी और शिखरी - भेद दो गदायुद्धों के रहस्य सिखाए। धर्मपाश,कालपाश और वरुणपाश दिए । सूखे और गीले वज्र दिए तथा पिनकास्त्र , नारायणास्त्र , आग्नेयास्त्र , वायव्यास्त्र , हयशिर और क्रौंच- महास्त्र यत्न से सिखाए। मुशल और किंकणी अस्त्र भी दिए । फिर विद्याधरास्त्र , नन्दनास्त्र , दो प्रकार के खड्ग , पैशाचास्त्र , मोहास्त्र , प्रस्वापनास्त्र , वर्हास्त्र , शोहणास्त्र , समापनास्त्र , विलयनास्त्र , भावनास्त्र , जो अति महत्त्वपूर्ण थे, सिखाए । इन महास्त्रों के कारण विश्वामित्र की शक्ति अपार हो गई । यह सब महास्त्र , उन्होंने श्रीराम को और लक्ष्मण को उस समय प्रयोग - संहार सहित सिखाए थे, जब उन्हें ताड़का - वध के लिए नैमिषारण्य में ले गए थे। इसके अतिरिक्त धृष्ट, रभस , प्रतिहारतर , पराङ्मुख, अवागुण, लक्ष्य , अलक्ष्य , दृढ़नाभ , सुनाभ, दशाक्ष, शतवक्त्र , दशाशीर्ष शतोदर , ब्रह्माभ , महानाभ, दुन्दुनाभ , स्वनाभ , निष्भल, विरुच , खार्चिमाली, धृतिताली , षिच्य, विधूत , मकर , महो, आवरण, जृम्भक, सर्वनाथ और वारुणास्त्र आदि की प्रयोग -विधियां भी सीखी थीं । इलावर्त में जो नारद - वामदेव ने वाम - पूजन विधि का प्रचलन किया था , ये उसी के समर्थक थे। उन्होंने जो ऋचाएं तैयार की , वे भी वामविधि मूलक थीं । कहना चाहिए , उनका वेद आर्यों से बिल्कुल पृथक और निराला था । आर्यजन जिन ऋचाओं को वेद कहते थे, ऋचीक उन्हें नहीं मानते थे; वे अपनी ऋचाएं पेश करते थे। ऋचीक का यह वामाचार मूलक वेद ही आगे चलकर अथर्वण या अथर्ववेद प्रसिद्ध हुआ। वशिष्ठ और विश्वामित्र जिस यज्ञ में एकत्र होते - वहीं झगड़ा खड़ा हो जाता ; क्योंकि दोनों की वेद- विधि परस्पर वाम थी । संक्षेप में विश्वामित्र अथर्वण थे और वशिष्ठ ऋग्वैदिक ।