कर दिया और वह चक्कर खाता हुआ भूमि पर गिर गया , यह देख कालिकेयों ने विकट हर्षनाद किया । इसी समय विद्युजिह्व ने मूर्छाभंग होने पर खड्ग हाथ में ले रावण के सम्मुख आकर कहा - "रक्षेन्द्र, आ , हम अपना अवशिष्ट धर्म पूरा करें । ” और एक बार फिर ये दोनों अप्रतिम योद्धा संग्राम में भिड़ गए । उधर सोमिल और कालकम्पन दैत्यों से प्रहस्त और विलम्बक राक्षस घनघोर युद्ध कर रहे थे । विद्युज्जिब पहले भी रावण के परशु का करारा घाव खा चुका था । अब वह बारम्बार रुधिर बहने से अशक्त हो सुस्त हो गया । कई नए घाव खा गया । रावण ने कहा - " विद्युज्जिह, शस्त्र रख दे और शरणापन्न हो । " “ रक्षेन्द्र, जब शस्त्र - धारण में मैं समर्थ न रहूं , तब तू ही मेरे शस्त्र को ग्रहण करके मुझे सम्मानित करना । ” इतना कहकर उसने एक विकट वार रावण पर किया, पर रावण ने उछलकर खड्ग का एक जनेऊ हाथ दिया , जिससे विद्युजिह्व का सिर कटकर भूमि पर जा गिरा । विद्युजिह्व का कबंध ढाई घड़ी लड़ता रहा । इस पर सब कालिकेय क्रुद्ध हो एकबारगी ही राक्षसों पर टूट पड़े । पर रावण ने युद्ध रोक दिया । उसने कहा - “ अब युद्ध का कुछ प्रयोजन नहीं रहा। ” विद्युज्जिह्व के सेनापति भयंकर ने कहा - " हम भद्र विद्युज्जिब का शरीर लेकर अश्मपुरी जाते हैं । रक्षेन्द्र अश्मपुरी के द्वार पर आएं । वहां कालिकेयों की रानी सूर्पनखा उनका स्वागत करेंगी। " __ “ कालिकेय अतिरथी विद्युजिह्व के शरीर को लेकर लौट गए। उनके पीछे रावण निरस्त्र हो मन्त्रियों - सहित अश्मपुरी को चला , उसके पीछे सब राक्षस सैन्य शस्त्र नीचेकिए हुए । अश्मपुरी में विद्युज्जिह्व की चिता नगर के बाहर रची गई और सूर्पनखा ने चितारोहण की तैयारी की । सब कालिकेय निराहार रह, समद्र -स्नान कर चिता की परिक्रमा कर नीरव खड़े हो गए । तभी कालिकेयों की रानी सद्यः विधावा सूर्पनखा शृंगारित हो , चितारोहण के लिए आई । पहले उसने पति - सहित चिता की परिक्रमा की । फिर उसने रावण के निकट आकर कहा - “ स्वागत भाई , अश्मपुरी में तेरा स्वागत है । परन्तु तू मुझे क्षमाकर रक्षेन्द्र , मैं अधिक विलम्ब नहीं कर सकती, तेरा कल्याण हो ! ” रावण की आंखों में आंसू भर आए। उसने कहा - “ बहन , यह तू क्या कहती है ! मैं तुझे लंका ले जाने के लिए यहां आया हूं! _ “ परन्तु वीर, मेरा पथ तुझे मालूम है। तूने अपनी मर्यादा रखी - कुल -मर्यादा, राज मर्यादा। मैंने अपनी मर्यादा रखी — स्त्री मर्यादा के लिए वहां जा रही हूं, अज्ञात लोक में । भाई , रक्षेन्द्र तू महाप्रतापी सत्त्व है, तेरे अनुग्रह से मैंने केवल एक रात का सुहाग भोग लिया । मैंने दोनों कुलों को धन्य कर दिया । तेरे रक्ष - कुल को भी और अपने कालिकेय -कुल को भी । अब तेरी मेरी राहें दो हैं । तू अपनी राह जा और मैं अपनी। " ___ “यह न होगा बहन , तुझे हम सभी भाइयों ने अपनी नेत्र - ज्योति समझा। कुल मर्यादा का पालन न करने से कुल- क्षय होता है । इसी से मुझे यहां आना पड़ा । पर विद्युज्जिब सुप्रतिष्ठित है । उसके साथ विवाह करके तूने रक्ष - कुल कलंकित नहीं किया । मैं सन्तुष्ट हूं, पर खेद है विद्युज्जिब ने मुझसे तुझे नहीं मांगा । अब तो बहन , जो होना था सो हो गया । अब तू यह भयंकर इरादा त्याग , शोक को भी मन से निकाल बाहर कर
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