“ दूसरी ही बात ठीक है भगिनीपति , तेरा द्वन्द्व मुझे स्वीकार है। शस्त्र उठा ले । परन्तु युद्ध- पूर्व कह, तेरा मैं और क्या प्रिय करूं ? " “ यही यथेष्ट है रक्षपति , तुझे कौन - सा शस्त्र सिद्ध है ? " " तू स्वच्छन्द प्रहार कर । सुना है तू शक्ति का अमोघ प्रहार करता है। " “ यों ही कुछ अभ्यस्त हूं । तो रक्षेन्द्र , तू प्रहार कर। " विद्युज्जिब ने उछलकर शक्ति उठा ली । रावण ने प्रचण्ड वेग से शक्ति फेंकी। विद्युज्जिब एक ओर झुक गया , शक्ति भूमि में जा धंसी। अब विद्युज्जिब ने शक्ति फेंकी । वह रावण के कुण्डल को छूती हुई चली गई । बड़ी देर तक दोनों योद्धा शक्ति , शूल , खड्ग और मुद्र से युद्ध करते रहे । रक्षेन्द्र रावण थककर हांफने लगा । उसके घावों से रक्त झर - झर बह रहा था , परन्तु विद्युज्जिह्व अभी भी ताजा - दम था । रावण ने हंसकर कहा - "तेरा पराक्रम श्लाघ्य है, वीर ! "रक्षेन्द्र प्रसन्न हों । मुहूर्त - भर विश्राम कर लें । इसके बाद युद्ध हो । " “ जैसे तुझे प्रिय हो । ” रावण ने अपने हाथ का शस्त्र रख दिया । दोनों पक्ष स्तम्भित हो वह युद्ध देख रहे थे। दोनों अप्रतिहत योद्धा आस- पास खड़े श्रम दूर कर रहे थे। रावण ने कहा - “विद्युज्जिब तू क्या सूर्पनखा के लिए कुछ सन्देश देना चाहता है ? " " केवल यही कि मैं उसे प्यार करता हूं । " " क्या उसकी कोई अभिलाषा भी है ? " “ यदि रक्षेन्द्र का अकेले ही उसे अश्मपुरी में स्वागत करना पड़ा, तो उसकी अभिलाषा रक्षेन्द्र से अव्यक्त न रहेगी। फिर राक्षसराज रावण जिसका भाई और ज्येष्ठ है , उसके लिए मुझे क्या चिन्ता ? परन्तु , अब तो हम सुस्ता चुके । " "निस्संदेह ? तो वीर , धनुष ले । " “रक्षेन्द्र , यदि दो शरीर-रक्षक साथ ले लें तो मुझे आपत्ति न होगी । " “ वाह वीर, ऐसा भी कहीं होता है ? ” इसके बाद दोनों वीरों में धनुष - बाणों से युद्ध हुआ। अनेक प्रकार से मन्त्रपूत बाणों से आकाश छा गया । दोनों वीरों के शरीर में बिंध-बिंधकर बाण शरीर का अंगभूषण बनने लगे । उनमें से रक्त की धार बह चली । अन्त में रावण ने सात अर्धचन्द्र एकबारगी ही धनुष पर चढ़ाकर विद्युजिह्व के धनुष की डोरी को काट डाला । यह देख राक्षसों की सेना गरज उठी । परन्तु इस समय विद्युज्जिह्व ने विकट परशु उठा रावण के सिर पर आघात किया । रावण आघात खाकर नीचे गिर गया । फिर उसने उछलकर अपना परशु संभाला, अपने सिर के चारों ओर घुमाकर रावण ने विद्युज्जिह पर प्रहार किया । प्रहार खाकर विद्युज्जिह मूर्छित हो गया । इस पर सब कालिकेय सेनापतियों ने विद्युजिह्व को शस्त्रों की छांह में छिपा लिया । राक्षसों की सेना एक बार फिर कालिकेयों पर टूट पड़ी। विद्युज्जिब का तरुण सेनापति मित्रहर्ष कालिकेय विद्यज्जिह्व के चरणतल में खड़ा होकर परश् चलाने लगा । परन्तु कुम्भकर्ण ने उसका पैर पकड़कर उसे एक शिला- खण्ड पर धर पटका , जिससे उसका भेजा फट गया । अब विकृतदंष्ट्र और कुम्भकर्ण में घनघोर युद्ध हुआ। अन्त में कुम्भकर्ण ने शक्ति उसके हृदय के आरपार कर दी । तब चक्रवाल , अंकुरी, प्रचंड और निर्घात कालिकेय सेनानायक एक साथ ही कुम्भकर्ण पर टूट पड़े । शस्त्रों की प्रचंड मार ने कुम्भकर्ण को विकल
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