अपने अधीन की । विद्युज्जिब ने अर्धचक्र -व्यूह रचा । मध्य में वह स्वयं रहा तथा प्रान्त में कुंजर और सनीथ कालिकेय सेना -नायकों को नियुक्त किया । ___ दोनों ओर से रण -वाद्य बजे तथा सेनाएं जय -जयकार का तुमुलनाद करतीं , शस्त्र चमकातीं परस्पर गुंथ गईं। देखते - ही - देखते बाणों से दिशाएं व्याप्त हो गईं । शीघ्र योद्धा कट - कटकर भूमि पर गिरने लगे। लोथों के ढेर लग गए । योद्धा परचार - परचार कर भटों से जूझने लगे। शस्त्रों की मारकाट , योद्धाओं की ललकार और घायलों के चीत्कार से दिशाएं व्याप्त हो गईं । मध्याह्न तक तुमुल युद्ध हुआ । धीरे - धीरे भटों के कट जाने पर अपनी -पराई सेना का भेद मालूम हुआ और लड़ते हुए प्रतिपक्षियों के नाम रावण अपने मन्त्रियों से पूछने लगा । इस समय कुम्भकर्ण ने विकट पराक्रम ठान रखा था । उसके सम्मुख कोई भट ठहर भी न सकता था । यह देखकर विद्युज्जिह्व आगे बढ़कर कुम्भकर्ण के सम्मुख आया । उसने खड्ग मस्तक पर लगाकर कुम्भकर्ण का अभिवादन किया और कहा - “ हे राक्षसों के ज्येष्ठ , मेरा तुझसे एक अनुरोध है । " " तो पहले अपना नाम कह , गोत्र बता और फिर प्रयोजन कह। " विद्युज्जिब ने कहा - "रक्षपति , तेरी बहन का स्वामी विद्युजिह्व कालिकेय हूं । " " तो क्या तू शरणागत है ? " " नहीं रक्षेन्द्र, मैं रक्ष- कुलपति के साथ द्वन्द्व युद्ध करने की प्रतिष्ठा चाहता हूं। " " तो वीर , मैं भी प्रतिष्ठित सम्बन्धी हं , तु मेरा भगिनीपति है, तु मुझी से द्वन्द्व - युद्ध कर । " __ “ यह क्रम- भंग होगा । ऐसी कालिकेयों की रीति नहीं। यह सम्मान ज्येष्ठ को ही मिलता है। भाग्य से रक्ष- कुल का अपराधी भी मैं हूं , अपने कुल का ज्येष्ठ भी मैं हूं । इसी से मैं प्रथम राक्षसेन्द्र रावण से द्वन्द्व - युद्ध करूंगा। फिर उसके बाद तेरी अभ्यर्थना करूंगा। " ___ “मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ। तेरी बात युक्तियुक्त , संगत और दोनों कुलों की मर्यादा के अनुकूल है । मैं रावण को तेरा अनुरोध निवेदन करता हूं । " अनुरोध सुनकर रावण वहां आया । विद्युज्जिह्व ने शस्त्र भूमि पर रखकर निरस्त हो रावण का अभिवादन किया । फिर कहा - “ सातों द्वीपों के स्वामी राक्षसेन्द्र का मैं अश्मद्वीप में स्वागत करता हूं। " “ स्वस्ति, तेरी विनय भी तेरे शौर्य के समान ही श्लाध्य है,किन्तु तू क्या मेराशरणापन्न है? " “रक्षेन्द्र , मेरी पत्नी और तेरी भगिनी सूर्पनखा ने मुझसे अश्मपुरी में तेरा स्वागत करने को कहा था । ” “ वह मुझे याद है। " " तो मैं अश्मद्वीप में तेरा स्वागत करता हूं। " " शरणापन्न होकर ? " " नहीं, अश्मपुरी का अधिपति और तेरा भगिनीपति होने के नाते । " " तू किस भांति स्वागत करना चाहता है , भगिनीपति ? " “ यदि तू शस्त्र भूमि पर रख दे, जैसे मैंने रख दिया है, तो तेरा चिर किंकर होकर , नहीं तो तू मुझे अपने साथ द्वन्द्व -युद्ध की प्रतिष्ठा दे। "
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