साहसी और अपनी रक्षा में समर्थ होता था । जब यह क्रोध करता था तो इस प्रकार गरजता था कि वन - पर्वत प्रतिध्वनित हो जाते थे। विद्युज्जिह्व ने कौशलपूर्वक तरणी को अश्म - द्वीप के तट पर लगाया । वह प्रथम स्वयं उछलकर उतरा और फिर उसने दोनों हाथों में सूर्पनखा को उठाकर तट पर रख दिया । धीरे -धीरे दोनों ही द्वीप की ऊबड़ - खाबड़ पथरीली राह पर बढ़ने लगे । सूर्पनखा ने पूछा - “ अब क्या हम सुरक्षित हैं ? " “ मैं समझता हूं, अश्मपुरी में हम सुरक्षित हैं । " “किन्तु रक्षेन्द्र से कह आई हूं कि अश्मपुरी में हम उसका स्वागत करेंगे। " “ सो तो ठीक ही कहा। " “ क्या हमारा बल इतना है ? " “ बीस सहस्र कालिकेय मेरे अधीन हैं । " “ वह तो तूने पहले कभी नहीं कहा! ” " तो तूने रक्षेन्द्र को कैसे निमन्त्रण दे दिया ? " " केवल तुझी पर निर्भर होकर। " " क्या मैं एकाकी दुर्जय रक्षेन्द्र से पार पा सकता हूं? " “ क्यों नहीं , तुझमें रक्षेन्द्र से अधिक शौर्य भी है , दर्प भी है। " “ यह त मानती है ? " “ मानती हूं । " " अच्छा ही है, उसमें बीस सहस्र कालिकेयों को भी जोड़ दे जिनकी तू आज से स्वामिनी है। ” “ पर मैं तो तेरी किंकरी हूं। " “ और मैं तेरा। " हमें कितना चलना होगा ? " " डेढ़ योजन । ” " चल फिर, सूरज का प्रखर तेज बढ़ रहा है । " दोनों आगे बढ़ चले । अश्मपुरी की पौर पर कालिकेयों ने दम्पति का भव्य अभिनन्दन किया । नगर - भर में नृत्योत्सव हुआ। दीपावली हुई। रात्रि को मद्यभोज हुआ , जहां विद्युजिह्व ने सूर्पनखा - सहित स्वर्ण-सिंहासन पर बैठ सबकी अभ्यर्थना स्वीकार की । अश्मनगर साफ - सुथरा और कलापूर्ण गवाक्षों से सम्पन्न था । कालिकेय सम्पन्न और श्रीमन्त न थे। कृषक और आखेटक -मात्र ही थे, फिर भी वे चतुर और सुरुचिपूर्ण थे। विद्युजिह्व से उन्हें प्रेम था । पितृहत्यारिणी माता का वध करने के कारण कालिकेयों ने उसका अभिनन्दन ही किया था । लंका में विद्युज्जिह्व छद्मवेश में एक शिकारी के रूप में रहता था । उसने एक प्रकार से अपने वैभव और सामर्थ्य का ठीक -ठीक अनुमान सूर्पनखा को भी न दिया था । वह उसे एक विपद्ग्रस्त तरुण दानव - कुमार समझती थी । उसकी शालीनता और उसका साहसिक जीवन उसे बहुत पसन्द था । इसी से वह उस पर इतनी मोहित थी । उसकी विपन्नावस्था , पारिवारिक कलंक और स्वयं विद्युज्जिह्व के हाथों माता का वध होने पर भी
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