परमार्थ प्राप्त होता है । रावण का छोटा पुत्र अक्षयकुमार था । वह अभी किशोर वय का सुन्दर, भावुक तरुण था ; और लीला -विलास में रुचि रखता था । मदालसा पर वह आसक्त था । वह अभी वेश्याओं की प्रवृत्तियों को नहीं जानता था । लंका में यौवन के अन्धे धनी तरुण किशोरों के धन और प्राणों को हरने वाली दो वस्तुओं का प्राबल्य था - एक वेश्यालय, दूसरे द्यूतालय । इसलिए लंका के श्रेष्ठ, चतुर नागरिक राक्षस वेद-विद्या , अश्व -विद्या, शस्त्र -विद्या और रत्न विद्याओं के साथ - अक्ष-विद्या और मोहिनी विद्याएं भी सीखते थे। परन्तु अक्षयकुमार अभी निपट बालक ही था । एक बार वाटिका में उसकी मदालसा से देखादेखी हो गई थी । सौविदों के द्वारा तीन वर्ष तक उसने उसकी आराधना की , तब कहीं उसने उसे आने की स्वीकृति दी । एक दिन विहार करते हुए वह मदालसा का अपने मित्र और मन्त्री प्रहस्त्र - पुत्र जम्बुमाली से वर्णन करने लगा ___ " अरे मित्र , उसका भू भंग, स्मित और कटाक्षपात , मृदुवक्र मनोहारी अंगहार , आलाप और अभिगमन – प्रत्येक में कुसुमायुध का वास है । अरे , जैसे तिल -तिल सब रत्नों के संग्रह का समावेश करके पितामह ब्रह्मा ने सुन्दोपसुन्द के नाश के लिए तिलोत्तमा अप्सरा की सृष्टि की थी - उसी भांति उस दुष्ट बूढ़े ब्रह्मा ने इस लंका में सब रक्ष- तरुणों का नाश करने के लिए यह मदालसा रची है । उसकी मृग- शावक जैसी तरला -विलोला चाक्षुषी, फूलों से गुंथी हुई सुदीर्धा वेणी, प्राणियों को कामोचित फल देनेवाली हैं । उसके चन्द्र -तिलक शोभित ललाट और दुर्लभ रक्तोत्पलकोकनद-मुखश्री अवर्ण्य है, उसका आताम्र मधुमत्त अधरोष्ठ का अमृत - पान पुण्य - शेष जन ही कर सकते हैं । अहा, घूर्णित लोचन , अनुरागाक्रान्त कमल - द्युति , वह मुग्धवदन सुधा -सदन ही है । उसका कृश तन तो नलिनी के समान शीतल कोमल है और उस पर प्रफुल्ल मुख- कमल खिला है । मैं भ्रमर उसका मकरन्द -पान करना चाहता हूं । उसके नितम्ब - सौन्दर्य को देखकर तो तपस्वी भी तुरन्त उत्कंठित हो उठेंगे। वह सुवदना , प्रहर्षिणी , तनुमध्या, मृदुभाषिणी , स्रग्धरा देखने वालों को आश्चर्य-विमूढ़ कर देती है। वह जब पलक झुकाकर, प्रेमर्दाकुल -पराङ्मुखी हो दृष्टि -मात्र से ही हृद्त भावों को व्यक्त करती है तब तो दशार्ण शरक्षेप से गलित , काम - वृद्ध भी उज्जीवितकाम हो जाते हैं । फिर मेरे जैसे श्रृंगार -स्निग्ध तरुण की क्या कथा ! उसके दिव्य रूप पर यौवन छाया ही है , फिर जब वह अंग और लीला के श्रृंगारानुभावों से उद्दीप्त होता है - तब मुनियों का मन भी मुग्ध हो जाता है । अरे , तारुण्य के निर्झर झरने के अमृत से उसकी देह- श्री सिंचित हुई , तो नवीन यौवन की लीला - कलाओं की पौध फूट उठी । फिर उन्हीं तरुओं की शीतल छाया में सोता हुआ कंदर्प अकस्मात् जाग उठा । हाय - हाय , वह अब जगज्जय करना चाहता है । विधाता ने उसे लावण्य ही के कणों से बनाया है, उसके कुच - युगल निर्बाध उन्नत होकर जन- जन को पीड़ित करते हैं । क्यों , भाई यह कैसा चमत्कार है , यह कामदेव - स्मरण -मात्र से तो उसकी उत्पत्ति है, फूलों के उसके बाण हैं , अबला स्त्री का उसे बल है, फिर भी वह व्यंग्य अनंग आबाल - वृद्ध सभी का घात करता है ! उसके आकर्णान्तर्गामी नील नेत्र तो ऐसे शोभायमान हैं , जैसे उसने कानों में कमल का श्रृंगार किया हो । लंका की सब स्त्रियां तो उसकी अतुल्यता में और पुरुष भोग -विरह में सूखते जा रहे हैं । बस षण्ढ ही मजे में हैं । उस कामिनी की क्षीण कटि आभरण - भार नहीं सक सकती थी , इसलिए विधाता ने उसे रोम
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