57. प्रतिगमन “विद्यज्जिह्व ने अपनी मां को मार डाला है। " रावण ने उत्तेजित स्वर में कहा । " नहीं , यह सम्भव नहीं है। ” सूर्पनखा ने और भी उत्तेजित होकर उत्तर दिया । " उसने उसे मार डाला है । " “ अपनी सगी मां को ? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हुआ । " " उसने उसे मार डाला। ” “विद्युज्जिह्व ने ? " " बहन, यह अच्छा नहीं हुआ । बड़ी भयानक बात है। " “किन्तु... ? " “ उसने सुकेतु को भी मार डाला है और उसके सब राक्षसों को भी । " “ किन्तु रक्षेन्द्र... ” " उसे न देवता क्षमा कर सकते हैं , न मैं । " " तो मैं रक्षेन्द्र को दोष न दूंगी , परन्तु मैं विद्युज्जिह्व के साथ हूं, यह न भूलना। " “ किन्तु मातृवध ? कितना जघन्य है ! " “ पुरुष पर कर्तव्य का भी कुछ भार है। " " परन्तु मैं उसे अब सम्बन्धी स्वीकार नहीं कर सकता । सुकेतु हमारा वीर सेनापति ही न था , परिजन भी था । ” रावण ने महिषी मन्दोदरी की ओर देखा। मन्दोदरी ने भग्न मन से कहा “ मैं भी । विज्जला मेरी मौसेरी बहन थी । " " अपने सम्बन्धी और परिजन के हत्यारे का हम कैसे स्वागत कर सकते हैं ? " “ यह तो बड़ी ही खराब बात हो गई, सूर्पनखा ! उसने अपनी सगी मां को मार डाला । हम उसका मणिमहालय में स्वागत नहीं कर सकते। " " मां , मैं नहीं चाहती कि वह यहां आए, मुझे ही उसके पास जाना होगा । " " परन्तु तू निश्चय ही अब उसे पति -रूप में वरण करना न चाहेगी! " “निस्सन्देह वह मेरा पति है। " “ सूर्पनखा, रक्षाधिपति की कुलकन्या , राक्षसबाला होकर तू मातृहन्ता से विवाह करना चाहती है ? " “ मैं उसी से विवाह करूंगी। " " ओह, यह तो अत्यन्त अपमानजनक और त्रासदायक है । मातृहन्ता से विवाह करके फिर क्या तू राक्षसों की प्रतिष्ठित जाति में रह सकती है? " । ____ "रक्षेन्द्र ने मुझे मेरा भविष्य बता दिया । पर मैं उसी की हं - उसके सब अच्छे- बुरे , पाप - पुण्य की संगिनी । उसके कार्य को रक्षेन्द्र ने देखा है, मैं उसकी मनोव्यथा देख रही हूं ।
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