पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१९२

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विद्युज्जिह्व हंस दिया । उसने कहा - “ तू क्या मुझसे अधिक लक्ष्यबेध करती है? जा , सो रह । परन्तु ठहर , मुर की स्त्री और बालक को तूने खिलाया -पिलाया कुछ ? " _ “ एक शूकर उसे दे दिया है और एक मद्य- भाण्ड। ” । __ " तो ये स्वर्ण मुद्राएं भी उसे दे दे, कदाचित् उसे इनकी आवश्यकता है। " उसने मुट्ठी - भर स्वर्ण मुद्राएं अपने चर्मबन्ध से निकाल बालिका की हथेली पर रख दीं । इसी समय एक वृद्ध -दानव हांफता हुआ आया । उसका सारा शरीर कांप रहा था । वह कोयले के समान काला और बहुत लम्बा था । वह अत्यन्त दुर्बल था । उसके बड़े- बड़े दांत भयंकर थे, उसके सारे अंग चर्बी से तर थे और सिर पर स्वर्ण से मढे दो सींग बंधे थे। उसकी कमर में भैंसे का चर्मबन्ध बंधा था और हाथ में एक विकराल खाण्डा था । वह दूर से दौड़ा चला आ रहा था , इसलिए हांफ रहा था और उसका अंग चर्बी और पसीने से गीला हो रहा था । वह दौड़कर विद्युज्जिह्व के पैरों में गिर गया । उसने कहा - “विद्युज्जिह्व, उसने तेरे पिता का वध कर दिया । " "किसने ? " " तेरी माता ने। " “ तूने देखा ? " “मैंने उसे घर के द्वार पर आते देखा । द्वार पर तेरी माता ने उसकी अभ्यर्थना की और वह उसे भीतर ले गई । ज्यों ही उसने शस्त्र खोलकर रखे, उसने उसका वध कर डाला और शव खींचकर चतुष्पथ पर डाल दिया । ” “ क्या वह उसका राक्षस पति भी वहीं था । " “ नहीं । " " तो अकेले उसी ने पितृचरण का वध किया ? " “ ऐसा ही मैं समझता हूं। " " तू क्या बहुत श्रमित है ? " " श्रमित हूं , पर तू करणीय कह । " " तो द्वीप में जाकर सब कालिकेयों को शस्त्र -बद्ध कर ले आ । " “ कहां ? ” “ जहां मृत पितृचरण हैं । ” यह कहकर विद्युज्जिह्व ने शूल उठाकर चरण बढ़ाया । बूढ़े दानव ने बाधा देकर कहा - " हमारे आने तक तू ठहर । एकाकी वहां जाना विपज्जनक हो सकता है । उस राक्षस के वहां बहुत परिजन हैं । वह रक्षपति का गुल्म - नायक है। वह तुझे मार डालेगा । " “मेरी चिन्ता न कर । तू अपनी राह जा । " यह कहकर विद्युज्जिब तीर की भांति वहां से चल दिया । इस समय चारों दिशाओं में अंधकार फैल गया था । विद्युज्जिब अंधेरी और सूनी गलियों को पार करता हुआ सीधा समुद्र - तीर की ओर जा रहा था । उसकी चाल तेज थी और उसका मस्तिष्क विभिन्न विचारों से गरम हो रहा था । नगर का प्रान्त - भाग आ गया और अब वह विजन वन में प्रविष्ट हुआ । यहां भी कहीं - कहीं समुद्र पर मछली मारनेवालों की झोंपड़ियां थीं । झोंपड़ियां धरती में गड्ढे खोदकर और वृक्ष की मजबूत टहनियां उनके चारों ओर गाड़कर