56. मातृवध कहा- सरमा ने कहा-“एक भाण्ड मद्य और दूं?" "नहीं,” विद्युज्जिह्व ने लापरवाही से कहा और पीठ पर तरकस बांधा। "तो विश्राम कर, मैंने व्याघ्र-चर्म शिलाफलक पर बिछा दिया है।" “नहीं, अभी मुझे जाना होगा, तू सो रह। अब रात को मेरा आना सम्भव नहीं है।" बालिका ने आकुल नेत्रों से तरुण को देखा। वह उदास हो गई। पर विद्युज्जिह्व ने इस पर ध्यान नहीं दिया। वह अपना शूल हाथों में तौल रहा था। बालिका ने कुछ भयभीत होकर “क्या कोई विग्रह है? शूल तू क्यों तौल रहा है?" “तो तुझे क्या भय है? तू सो।" "नहीं सोऊंगी। रातभर जागती रहूंगी, जब तक तू न आएगा।" “मैं तो रात-भर न आ सकू यह भी संभव है, कल तक भी न आ सकू- -यह भी संभव "तो तू रुष्ट होकर जा रहा है?" “किससे?" “मुझसे और किससे?" "तुझसे क्यों?" “मैंने तुझे दूसरा मद्य-भाण्ड नहीं दिया, इससे!" "नहीं रुष्ट नहीं हूं।" "तो मत जा, विश्राम कर।" “जाना होगा!" “कहां?" "द्वीप के दक्षिणांचल में। पितृचरण बहुत दिन बाद घर आए हैं। अभिनन्दन करूंगा।" "तो अभिनन्दन करके रात को आ, न हो प्रभात में जा।" "बहुत दूर है, रात में लौट न सकूँगा। प्रभात तक ठहर नहीं सकता-पितृचरण पर संकट आ सकता है।" “कैसा संकट?" “वह राक्षसों का पुर है, जहां मातृचरण का निवास है। वह पुरुष भी राक्षस है, जिसे मातृचरण ने घर में डाल लिया है। संवादवाहक ने कहा है कि पितृचरण पर संकट आ सकता है।" "तो मैं तेरे साथ चलती हूं।"
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