उसकी शक्ति अमोघ हो गई। बाण अपने काल का महान् दैत्य - सम्राट् था । उसकी शक्ति असीम थी । उसी के समय में कालिकेयों की एक नई जाति दानवों में से विकसित हुई । कश्यप की तृतीय पत्नी दनु की दो कन्याएं भी थीं जिनमें एक पुलोमा थी , दूसरी कालिका। इन दोनों की संतानों से दो नई शाखाएं चलीं -पौलोम और कालिकेय । इस समय बीस सहस्र कालिकेयों ने बाण की अधीनता स्वीकार कर उसका बल बढ़ाया , परन्तु काल पाकर बाण का भी बल - क्षय हुआ और कालिकेयों को कश्यप- तट छोड़कर लंका की ओर भागना पड़ा। इनमें से बहुतों ने लंका के आसपास के द्वीप - समूहों पर अधिकार कर लिया । ये सारे ही द्वीप उस समय रावण के रक्ष- साम्राज्य में आ चुके थे। अतः रावण को कालिकेयों पर बहुत बार सेना भेजनी पड़ी । परन्तु हर बार कालिकेयों ने राक्षस - सैन्य को प्रताड़ित किया । कालिकेयों के आतंक का सिक्का राक्षसों पर बैठ गया , पर महत्त्वाकांक्षी रावण ने अभी कालिकेयों की गतिविधि पर विशेष ध्यान नहीं दिया था । वह अपने भारत प्रवास में चला गया था । इसी बीच विद्युज्जिब लंका में छद्मवेश में आने- जाने लगा । वही वास्तव में कालिकेयों का सरदार था । राक्षसों के भय से वह छिपकर लंका में आता था , पर दैवयोग से उसका परिचय हो गया सूर्पनखा - राज - कन्या से इसलिए अब लंका में उसका आना - जाना और ही प्रकार का हो गया । वह सूर्पनखा से भी छिपकर मिलता था , इसलिए बहुधा कई कई दिन तक उसे घात में लंका में छिपे रहना पड़ता था । विद्युज्जिब एक प्रतिभासम्पन्न और वीर तरुण था । उसमें साहस की भी कमी न थी । अपने अदम्य साहस और उत्साह के कारण ही वह कालिकेयों का सरदार बन गया था । अपने असाधारण विक्रम से उसने वह द्वीप जय किया था और हर बार राक्षसों को उससे हार खाकर भागना पड़ता था । परन्तु उसने अभी लंका में यह प्रकट नहीं किया था कि वही कालिकेयों का सरदार है । सूर्पनखा उसे एक कुलीन दानव - तरुण ही समझती थी । उसकी उठान बड़ी सुन्दर थी , धुंघराले काले बाल तथा भरी हुई गर्दन । रंग काला था , परन्तु दांत हीरे के समान उज्ज्वल और चमकदार थे। उसका हास्य बड़ा निर्मल था । उसका विशाल वक्ष , प्रचंड बाहु, पुष्ट जघन और तीखी दृष्टि उसके व्यक्तित्व को आकर्षक बना देते थे। वह शब्दबेधी था । धनुष भी उसका खूब बड़ा था । बाणों का तूणीर सदैव ही उसके कन्धे पर पड़ा रहता था । इसके अतिरिक्त एक विशाल शूल भी वह हाथ में रखता था । सूर्पनखा से तथा अन्यत्र भी मित्रों से उसने यही कहा था कि वह आखेट के लिए लंका के वनों में शौक से घूम रहा है। सूर्पनखा के अतिरिक्त यह कोई नहीं जानता था कि वह कालिकेय दानव है । संध्या का अंधकार गहरा होता जा रहा था । इसी समय विद्यज्जिह्व लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ लंका की वीथियों में तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था । वीथिका में अंधकार था । वह नगर का बूचड़ मुहल्ला था , जहां नर - मांस से लेकर सब पशुओं का मांस मिलता था । यहां व्याघ्र का मांस भी बिक रहा था , जिसे लोग शौर्य- वृद्धि के लिए खाना रुचिकर समझते थे । विद्युज्जिह्व के कन्धे पर एक भारी हरिण का भार था । जो बाण उसके हृदय में पार हो गया था , वह अभी उसके शरीर में अटका हुआ था । उसमें से अभी तक रक्त टपक रहा था । उसके झोले में और भी कुछ पक्षी थे, जिनका उसने शिकार किया था । परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसका स्नायुजाल लोहे का बना हो । वह दूर से आ रहा था और उसके
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