जाए। ऐसा एक तरुण मेरी नजर में है, प्रजंघ। " “ परन्तु प्रजंघ से मेरा क्या लेना- देना है? मैं उसके साथ क्यों भाग जाऊं ? " सूर्पनखा ने गुस्से होकर कहा। । ___ “मेरी प्यारी रक्षराज- नन्दिनी , तुम्हें वस्तु का यथार्थ ज्ञान होना ही चाहिए । तुम्हारा शरीर और आत्मा परिपूर्ण होगा , तब वह आह्लाद से एक दिन ओत - प्रोत हो जाएगा। तभी चैतन्य आत्माएं परस्पर मिलकर जीवन के सच्चे आनन्द को प्राप्त करेंगी। परन्तु तुमने यदि भावुकता और आवेश में आकर कुछ चूक की तो तुम्हारे इन नेत्रों में जो आज प्रेम से उत्फुल्ल हैं - करुण विष भर जाएगा । ऐसा ही बहुधा होता है बहन , मैं जानती हूं । मैंने देखा है। ” " क्या यह महिषी ने जीवन के प्यार की व्याख्या की ? " " नहीं , केवल प्यार की , जिसके फेर में तुम फंसी हो । " " तो जो किसी को प्यार करते हैं , वे जीवन के प्यार से वंचित ही रह जाते हैं ? " " ऐसा ही मैं समझती हूं । जो किसी के प्यार में फंस जाते हैं , वे प्रायः जीवन को प्यार नहीं करते । जीवन का प्रेम अन्य प्रेम की भांति नहीं किया जाता । उसमें एक कलापूर्ण कौशल की आवश्यकता है भावावेश की नहीं। कला -पूर्ण कौशल तो सीखना ही पड़ता है । " “ वह चिरसाध्य है । उसे सीखने को बहुत समय चाहिए । बहुधा जब लोग उसे जान पाते हैं , उनका यौवन ढल चुका होता है । वह तुरन्त ही प्यार करने जैसी कोई छोटी चीज नहीं है, रक्षराज -नन्दिनी ! ” “ तो क्या महिषी विद्युज्जिह्व में कोई दोष देख रही हैं ? " “ अनेकों। वह अप्रत्याशित रूप से गम्भीर और अन्यमनस्क है। उसे न कोई अनुभव है, न उसके अधिकार में कोई सम्पदा है, न जीवन का सहारा। वह जीवन को नहीं, जीवन के प्रवाह को देख सकता है। वह भाग्यवादी है और जीवन के भय से छिपकर रहता है । निस्संदेह वह भावुक है। दूसरों के प्रति अपने कर्तव्य को समझता है। वह सच्चा और स्पष्टवक्ता है, परन्तु वह पुरुष नहीं है, जो हमारी बहन को जीवन की राह दिखा सके । न वह ऐसा ही है जिसे कुछ सिखाया जा सकता है। ऐसे पुरुष को प्यार करके कौन स्त्री अपने जीवन को सुखी कर सकती है? " सूर्पनखा रोने लगी । उसका कुछ भी विचार न कर मन्दोदरी कहती चली गई - “विद्युज्जिह को अपने जीवन से भी प्यार नहीं है । किसी स्त्री के प्रेम के प्रभाव में आने का अर्थ है, किसी पुरुष को प्रेम करना। परन्तु मैं नहीं चाहती कि कोई कुमारी किसी ऐसे तरुण को प्यार करे जो सब ओर से असहाय हो , अव्यवस्थित हो , अस्तव्यस्त हो । " " तुमने तो विद्युजिह्व को देखा ही नहीं है! " रावण ने कहा । " नहीं , जो सुना उसी पर मैंने सूर्पनखा को हितकर बात कही है। " " क्यों न उसे बुलाकर उसे अपनी योग्यता प्रमाणित करने का अवसर दिया जाए । " रावण ने कहा " बहन, सूर्पनखा क्या तू उसे एक संदेश नहीं भेज सकती ? " " नहीं। ” " क्यों नहीं ? "
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