53. अन्तःपुर में अन्तःपुर में रक्षमहिषी मन्दोदरी ने रावण का भव्य स्वागत किया । सब मंगलोपचार किए। प्यार, विरह, उपालम्भ और मान - मनव्वल हुआ , रति -विलास हुआ । मिलन -यामिनी मधुयामिनी की भांति व्यतीत हुई। सुप्रभात हुआ। नित्य नैमित्तिक कार्यों से निवृत्त हो , रावण ने अब अपने रक्ष महासाम्राज्य के विस्तार पर ध्यान दिया । इसी महत् कार्य के लिए उसने सारी पृथ्वी की यात्रा की थी । वह धर्म और राजनीति , दोनों में सार्वभौमता की स्थापना करने का स्वप्न देख रहा था । जिस महदुद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अपने प्राणाधिक पुत्र मेघनाद को मृत्युञ्जय रुद्र के सान्निध्य में भेज दिया था , उसकी पूर्ति के लिए उसे अब अपने महावीर भाई कुम्भकर्ण, महाकूटनीतिज्ञ सुमाली तथा अपने मन्त्रियों से सत्परामर्श लेने थे। उसे पृथ्वी के सब दिक्पालों और लोकपालों को जय करना था । सर्वत्र अपनी रक्ष - संस्कृति का डंका पीटना था । वह अभी तक ऋषिकुमार और सप्त द्वीपाधिपति ही था । किन्तु अब वह पृथ्वी भर के नृवंश का महिदेव बनना चाह रहा था । रात्रि ही में उसने अपने सब प्रमुख राजपुरुषों और राक्षस महज्जनों को भोर में सभा करने की आज्ञा दे दी थी । अब वह प्रातः कृत्यों से निवृत्त हो ज्यों ही सभा - भवन की ओर जाने को प्रस्तुत हुआ, तभी मन्दोदरी ने आगे बढ़कर कहा "मुझे रक्षेन्द्र से कुछ निवेदन करना है। " “किन्तु मैं तो अभी बहुत व्यस्त हूं , क्या अगत्य की बात है? " " है तो । " "किसके सम्बन्ध में ? " “रक्ष - राजकुमारी सूर्पनखा के सम्बन्ध में । " " हमारी प्रिय बहन के सम्बन्ध में तुम्हें क्या कहना है ? क्या कुछ चिन्तनीय बात है ? " “चिन्तनीय नहीं , परन्तु विचारणीय तो है। मैं उसके भावी जीवन - उसके विवाह के सम्बन्ध में कहना चाह रही थी । अभी तक हमने इस सम्बन्ध में विचार ही नहीं किया है , परन्तु अब वह वयस्क भी तो हो गई है। " “निस्सन्देह वह हम तीन भाइयों की बहन है । उसकी कल्याण- कामना से मैं कैसे विमुख हो सकता हूं ? " “ यही तो मैं भी चाहती हूं। अब हम इस प्रश्न को टाल भी तो नहीं सकते ! " " क्या कहीं हम लोगों से असावधानी हुई है ? " __ “ नहीं, परन्तु अब हमें असावधान रहना उचित नहीं है । परन्तु रक्षेन्द्र क्या आज बहुत व्यस्त हैं ? " “ ऐसा ही है । "
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