“ वे शरवन के उस पार उत्तुंग हिम -शिखर पर रहते हैं । जा और देवजय करने निमित्त उनसे वर प्राप्त कर। उनका सान्निध्य प्राप्त करके तू कामचारी हो सकता है। उनसे खेचरमुद्रा, मृत्युंजयसिद्धि , देवसिद्धि , और दिव्यास्त्रों को प्राप्त कर। " इतना कह , रावण ने भुजा उठाकर कहा - “ सब देव , दैत्य , यक्ष, किन्नर, असुर, नर , नाग सुनें - राक्षसों का यह वंश अब से कभी देवार्चन न करेगा । देव इस वंश के दास हैं , पूजार्ह नहीं । पूजार्ह केवल देवाधिदेव महादेव वृषाभध्वज रुद्र हैं । " मेघनाद ने अलक्ष्य रुद्र को साष्टांग प्रणिपात किया और कहा - “ हे पिता , मैं यथावत् यम-नियम - अनुष्ठान करके भगवान् वृषाभध्वज रुद्र की शरण में जाता हूं । " “ जा पुत्र , और महत् श्रेय को सिद्ध कर। फिर हम इन दुर्बल देवों का सम्मुख समर में निधन कर, विश्व में एक रक्ष- संस्कृति का प्रसार करेंगे। " मेघनाद ने रावण की वन्दना की और गधों के वायुवेगी रथ में बैठ वहां से प्रस्थान किया । रावण भी अब चिर -वियोग-विदग्धा सुन्दरी सुकुमारी मन्दोदरी का ध्यान कर अपने अन्तःपुर की ओर चला ।
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