तल्पम् ! ” किन्तु मालिनी ने अस्वीकार करके उत्तर दिया - “ भद्रा वधूभवति यत्सुपेशा स्वयं सा मित्रं वृणुते जने चित् । ” ऋषि ने कहा - “ देवा अग्रे न्यपद्यन्त पत्नीः समस्पृशन्त स्तुन्वन्तस्तनूभिः। " मालिनी ने उत्तर दिया - “ यथासौ मम केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन। " ऋषि ने कहा - “ सूर्येव नारी विश्वरूपा। तां पूषंश्छिवत मामैरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति । या न ऊरू उशती विश्रयाति यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् । ” __ मालिनी ने अस्वीकार करते हुए कहा - “ या पूर्वपतिं वित्त्वा यान्यं विन्दते परम् । पञ्चोदनं च तावदजं ददातो न वियोषत । " इसी प्रकार बहुत प्रकार से वैदिक वाद-विवाद हुआ , परन्तु मालिनी ने शय्या रोहण नहीं किया । ऋषि को पंचोदन - अनुष्ठान स्वीकार करना पड़ा। अनुष्ठान में बहुत खटपट करनी पड़ी । बहुत देव , दैत्य , असुर , आप्तजनों को आमन्त्रित करना पड़ा । देवों को बलि दी गई । आप्तों के लिए यज्ञ किए गए। दैत्यों , असुरों , ऋषियों को भोज दिए गए, परन्तु समारोह की इस भीड़ - भाड़ में अवसर पाकर असुर दस्यु एकचक्र मालिनी को उठाकर घोड़े पर बैठकर उड़नछू हो गया । सारा ही समारोह रुक गया । एकचक्र दस्यु के दुर्जय दुर्ग से मालिनी को वापस लाने का साहस किसी को नहीं हुआ , परन्तु ऋषि रैक्व ऐसे न थे जो आसानी से उस मुख को भूल जाते । उन्होंने एकाकी ही असुर एकचक्र के उस दुरूह दुर्गम दुर्ग में जाने की ठान ली और वे खोज - पता लगाते गहन वन में घुसे । वन में असंख्य हिंस्र जन्तु थे – अनेक दुर्गम नद, नदी, पर्वत , उपत्यकाएं थीं । परन्तु ऋषिवर के हृदय में कामज्वाला धू धू जल रही थी । वे सब कष्टों और बाधाओं को पार करते हुए अन्ततः एकचक्र के गिरिशिखर पर अवस्थित दुर्ग के द्वार पर जा खड़े हुए। यों दुर्ग के द्वार तक पहुंचना आसान काम न था । ऋषि एकाकी थे, पदातिक थे । इससे जा पहुंचे। सेना -साधन होने पर नहीं पहुंच सकते थे। मार्ग संकरा था , दुरूह था । सीधी चढ़ाई थी । जगह- जगह बुओं पर भारी -भारी शिलाएं इस ढंग से रखी हुई थीं जो चाहे जब लुढ़का दी जातीं और सैकड़ों मनुष्यों की पिसकर चटनी हो जाती । परन्तु बुों पर नियुक्त असुरों ने इस बूढ़े, निरस्त्र एकाकी ऋषि को देखकर बाधा नहीं डाली । ऋषि ने दुर्ग द्वार पर पहुंचकर पुकार की और एकचक्र दस्युराज से मिलने की इच्छा प्रकट की । सूचना पाकर एकचक्र ने ऋषि की सादर अभ्यर्थना की । अर्घ्य-पाद्य दिया और आने का कारण पूछा । ऋषि ने कहा - “ तू मेरी एक दासी को हर लाया है। " “ कौन दासी ? मुझे तो स्मरण नहीं । क्या वह यहां है? " " मात्सर्य न कर। तूने ही उसे हरण किया है, वह अवश्य ही यहां होगी। " " क्या किसी ने देखा ? " “ देखा नहीं , मैं जानता हूं। " “ आप उसे पहचानते हैं ? " ____ " क्यों नहीं, वह नवकुसुम - कोमलांगी है, दिव्यरूपा है, मृग - शावक - से उसके अमल नेत्र हैं , स्वर्ण- सा उसका गात्र है। भौंरों के गुंजन - सी उसकी वाणी है , पुष्प - गुम्फिता लता - सी
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१६७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।