" तो गरल ही दे। " “ गरल देने की नगरपाल की आज्ञा नहीं । मद्य लेना हो तो ले। ” पीठ- पुरुष ने दांत निकाल दिए ! " ला फिर, मद्य दे। " " तो ला स्वर्ण। " " अरे मूढ़, कैसा स्वर्ण? " “ मद्य क्या यों ही बंटता है, शुल्क दे। ” " नृत्य क्या देखा नहीं तूने ? ” “ क्यों नहीं, नेत्रों को अवश्य देखना पड़ा , पर इसमें मेरा दोष नहीं। तू मेरी हाट के सामने आकर क्यों नाची ? " इतने में एक तरुण भीड़ से आगे आया । उसका किशोर वय था , उज्ज्वल श्याम वर्ण , काकपक्ष ग्रीवा पर लहरा रहे थे, कमर में कृष्णाजिन, कन्धे पर धनुष- तूणीर , हाथ में शूल , विशाल वक्ष, बड़ी - बड़ी आंखें , प्रशस्त ललाट , भीगती मसें , कुंचित भृकुटि , केहरि - सी कटि , कठोर पिंडलियां , अभय मुद्रा , सुहाससिक्त अभिनन्दित मुखश्री। तरुण ने एक स्वर्ण पीठ - पुरुष के सामने फेंककर कहा - “स्वर्ण, मैं देता हूं - उसे तू मद्य दे। ” ___ पीठ - पुरुष ने हंसकर स्वर्ण को परखा और मंजूषा में रखकर मद्यभाण्ड उठाकर तरुणी को दे दिया । भाण्ड को मुँह में लगाकर तरुणी गटागट मद्य पीने लगी । आधा भाण्ड पीकर उसने तृप्त होकर सांस ली , जीभ से होंठों को चाटा -हंसी, फिर दो कदम आगे बढ़ , अपना अनावृत , उन्मुख यौवन तरुण के वज्र वक्ष से बिल्कुल सटाकर घूर्णित , मदरंजित कटाक्ष तरुण पर फेंक , दोनों भुजाओं में मद्य - भाण्ड थाम, ऊंचा कर उसे तरुण के होंठों से लगाकर कहा - “ अब तू पी । " तरुण ने अपनी भुजाओं में तरुणी को समेट लिया । एक ही सांस में वह सारा मद्य पी गया । फिर उसने तरुणी के लाल -लाल होंठों पर अपने मद्यसिक्त अधर रखकर कहा - “ अब चल। ” तरुणी हंस दी । उज्ज्वल हीरकावलि के समान उसकी धवल दन्तपंक्ति बिजली- सी कौंध उठी । उसने मद्यभाण्ड फेंक तरुण के कंठ में अपनी भुजवल्लरी डालकर कहा- " चल । ” दोनों परस्पर आलिंगित होकर एक ओर को चल दिए । नर -नाग - देव - दैत्य - असर मानुष- आर्य- व्रात्य सब नर - नागर पीछे रह गए। तरुण ने पूछा - “ तेरा ग्राम यहां कहां है ? " " उस उपत्यका में , अर्जना के तट पर। " “ और गोत्र ? ” “ गोत्र भी वहीं है । " “ कब वह आया है ? " " इसी शरद् ऋतु में । " “ कहां से ? " " काश्यप सागर - तट से । "
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