उस अत्यन्त प्राचीन काल में इसी गुह्य वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रजनन - आधार पर नर- नारी की गुह्रोन्द्रियों का पूजन प्रारम्भ हुआ, जिसका आरम्भ रुद्र से हुआ । इसलिए लिंगोपासना की विधि में संसार की सभी प्राचीन जातियों ने रुद्र या शिव को सम्मिलित किया और रुद्र के व्यक्तित्व को नृवंशों की समष्टि में आरोपित कर लिंग - पूजन को शिवलिंगार्चना का रूप दिया । लिंग का धार्मिक अर्थ किया गया ‘ लयनाल्लिङ्गमुच्यते , अर्थात् लय या प्रलय होता है, इससे उसे लिंग कहा गया है । कुछ अल्पायु वाले छोटे - छोटे शरीरों में मैथुनी वृद्धि में कुछ कठिनाई होती है। एक नन्ही- सी जननी एक बार में थोड़े ही से डिम्ब उपजाती है। यदि जनकों की आवश्यकता न पड़े तो दूनी शक्ति वृद्धि में लग जाती है । इसलिए, जहां विभाजन या अंकुरण के लिए शरीर अधिक जटिल है और मैथुनी विधि के सुभीते नहीं हैं , वहां ‘ प्रथा -जनन की विधि काम आती है। इसमें शुक्र या लिंग- जीवाणु के बिना ही काम चल जाता है । ये डिम्ब ज्यों ही प्रौढ़ता को पहुंचते हैं त्यों ही शरीर की रचना होने लगती है। मधुमक्खी का नर इसी प्रथा जनन विधि से उत्पन्न होता है । उसके माता-पिता नहीं हैं परन्तु रानी मक्खी वीर्यरहित अण्डों से ही पैदा होती है। इस प्रकार जननक्रिया के हिसाब से चार प्रकार के प्राणी संसार में हैं - भेदज , अंकुरज, मैथुनज और अनादितः अण्डज । अब विश्वसृष्टि के नियमन में मैथुनी क्रिया प्रकृति में अपने आप उपजी या किसी ईश्वर या कत्र्ता का इसमें हाथ है, यह विचारणीय है । रुद्र और रावण ने किसी दैवी कत्र्ता को स्वीकार नहीं किया । उन्होंने मनुष्य को ही अपनी सृष्टि का कर्ता-धर्ता माना और अपने को ही ईश्वर कहा। लाखों -करोड़ों वर्षों में विकसित होकर अयोनिज से योनिज सृष्टि हुई है । मनुष्य - वृद्धि की यह कल्पना है कि उसने जगत् की प्रवृत्ति काम - वासना की ओर देखकर , समस्त प्राणियों को काममोहित पाकर लिंग- योनि की उपासना की नींव डाली । ईसाई धर्म के प्रचार से पूर्व पाश्चात्य देशों की प्रायः सभी जातियों में किसी न किसी रूप में लिंग- पूजा की प्रथा प्रचलित थी । रोम और यूनान दोनों देशों में क्रमशः प्रियेपस और फल्लुस के नाम से लिंग- पूजा होती थी । फल्लुस फलेश का बिगड़ा रूप है । लिंग - पूजा इन दोनों राष्ट्रों के प्राचीन धर्म का प्रधान धर्म -चिह्न था । वृषभ की मूर्ति लिंग के साथ पूज्य थी । पूजन- विधि हिन्दुओं की भांति धूप -दीप आदि द्वारा होती थी । मिस्र देश में तो हर और ईशिः की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था । इन तीनों देशों में फाल्गुन मास में , वसन्तोत्सव के रूप में लिंग- पूजा प्रतिवर्ष समारोह से हुआ करती थी । मिस्र में ओसिरिः नाम के देवता इथिओपिया के चन्द्रशैल से निकलती हुई नील नदी के अधिष्ठाता माने गए थे। प्लुटार्क का कहना है कि उस समय मिस्र में प्रचलित लिंग- पूजा सारे पच्छिम में प्रचलित थी । प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंग- पूजा का उल्लेख है । अमेरिका में मिली प्राचीन मूर्तियों से प्रमाणित है कि अमेरिका के आदि निवासी लिंग- पूजक थे। ईसाइयों के पुराने अहदनामे में लिखा है कि रैहीवोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता को लिंग के सामने बलि देने से रोका था । पीछे उस लिंग- मूर्ति को तोड़ - फोड़ दिया गया था । यहूदियों का देवता बैल फेगो लिंग- मूर्ति ही था । उसका एक गुप्त मन्त्र था , जिसकी दीक्षा यहूदी ही ले सकते थे । मौयावी और मारिना निवासी यहूदियों के उपास्य देव लिंग की
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