कहकर पूजित किया । जिसका परिणाम यह हुआ कि लिंग - पूजन की वृत्ति प्राचीन जातियों में स्थान पा गई । हम यहां पर थोड़ा और गहराई से वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे । जीवित प्राणी का यह अनिवार्य लक्षण है कि वह अपनी परिस्थिति में जितने रासायनिक उपादान पाये, सबको अपने जटिल सादृश्य में परिणत कर दे। यह परिणयन पाचन करना और विसर्जन करना इन दो क्रियाओं के रूप में , अनवरत चलता रहा है । विसर्जन देर में और पाचन जल्दी होता है । परन्तु जिस तरह आयतन बढ़ता है, उसी तरह ऊपरी तल , जो आहार पहुंचाने का साधन है, अनुपात से नहीं बढ़ता । एक हद तक बढ़कर रुक जाता है। इसलिए वृद्धि अपरिमित नहीं होती । चींटी से हाथी तक व कीटाणु से किसी भी महाकाय जन्तु तक पहुंचकर व्यक्तित्व की अभिवृद्धि रुक जाती है । बाहरी तल और आयतन में शरीर के भीतर एक ऐसा अनिवार्य अनुपात है कि जिसके भंग होने से वृद्धि रुक जाती है और तब व्यक्तिगत ह्रास और वृद्धि का अनुपात समान हो जाता है। बड़े शरीरों वाले सभी जीवों को ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । परन्तु सूक्ष्म देहधारी जीव, जिन्हें सेल कहते हैं , उनके सामने यह कठिनाई नहीं आती। जहां उनकी बाढ़ रुकती है , वहां वे बीच से फटकर दो हो जाते हैं । इस तरह वहां आयतन नहीं बढ़ता । आयतन बढ़ने के बदले उनकी संख्या बढ़ जाती है। एक से दो , दो से चार, चार से आठ । इस प्रकार उनकी अनन्त संख्या हो जाती है । इस वृद्धि में ह्रास नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण है और निरन्तर बढ़ने वाला है । इस प्रकार ये सेलों वाले सूक्ष्म जीवाणु ‘ एकोऽहं बहुस्याम् के सिद्धान्त को चरितार्थ करते हैं और इसी में पूर्णमदः पूर्णमिदम् की घटना घटित होती है । परन्तु ज्यों - ज्यों शरीर में स्थूलता आती है , यह भेदज उत्पत्ति कठिन होते -होते समाप्त हो जाती है । षट्पद या अष्टपद प्राणी इस तरह कट - कटकर नहीं बढ़ सकते। यहां प्रकृति अंकुरण से काम लेती है, जिसमें सारा शरीर ज्यों का त्यों रहता है । उसका केवल एक छोटा - सा अंश कटा - सा रहता है और धीरे - धीरे दूसरे शरीर का जब अच्छा- सा पूर्ण रूप तैयार हो जाता है, तब वह अंश अपने पैदा करनेवाले बड़े शरीर से बिलकुल अलग हो जाता है और उसका व्यक्तित्व आगे बढ़ने लगता है । ऐसा अंकुरण मूंगों में और कुछ विशेष प्रकार के कीड़ों में और थोड़े- से रीढ़वाले क्षुद्र जन्तुओं में होता है। परन्तु अस्थि -पिंजर की जटिलता बढ़ने पर अंकुरण प्राणियों की बाढ़ भी रुक जाती है और यह वृद्धि छोटे- छोटे उत्पादों तक पहंच - पहुंचकर समाप्त हो जाती है। इसके बाद ही जन्तुओं में मैथुन का आरम्भ होता है । मैथुन का अर्थ है जोड़ा । दो अकेली सेलें जुड़कर एक सेल बन जाती हैं । इनमें से एक सेल लिंग अथवा शुक्र होती है, दूसरी योनि अथवा डिम्ब । इस क्रिया के लिए दो व्यक्तियों के शरीर से एक - एक जनक और जननी सेलें निकलकर परस्पर मिलकर एक सेल बनती हैं । वही नए व्यक्ति का मूल रूप है । नई सेल भेदन - रीति से संख्या- वृद्धि करती- करती असंख्य सजातीय सेलें बनाकर नए स्थूल शरीर का ढांचा तैयार करती हैं । भेदन और अंकुरणवाली वृद्धि में नर -नारी का कोई भेद नहीं होता । परन्तु बड़े शरीर में , चाहे चल हो या अचल , यह भेद अनिवार्य हो जाता है कि नर का वीर्याणु हो और नारी का डिम्बाणु । वीर्याणु का रूप भी लिंगाकार होता है और डिम्ब की अनुरूपता योनि - पीठिका से मिलती - जुलती रहती है । चराचर प्राणियों में इस प्रकार वृद्धि की विधि में लिंग और योनि व्यापक हैं ।
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