साँचा:सही47. लिंग पूजा पिछला परिच्छेद ‘गुह्याद् गुह्यतमम् हमने संस्कृत में लिखा है । गुह्यांग का आवरण सभ्यता का प्रतीक है । इसलिए गुह्य बातें भी अनावृत न रहनी चाहिए । इसी से गुह्य पर हमने संस्कृत भाषा का आवरण डाला है। कोई आवश्यक नहीं कि पाठक इस अध्याय को पढ़ें ही । केवल वे लोग, जो इस गुह्योपदेश की पूरी गहराई तक पहुंचना चाहते हैं , इस अध्याय को मनन करने की चेष्टा करें । फिर भी इस गुह्योपदेश की थोड़ी - सी व्याख्या दार्शनिक और पौराणिक आधारों पर - उसमें यत्किंचित् वैज्ञानिक सम्पुष्टि देकर- हम यहां करते हैं । इस गुह्योपदेश का अभिप्राय यह है कि जीवन और शरीर एवं मनुष्य विश्व की सबसे बड़ी इकाई है। कोई देव उससे बड़ा नहीं । मनुष्य ही सबसे बड़ा देव है और उसे अपनी ही पूजा -अर्चना करनी चाहिए। उपनिषदों में इस तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार की गई है - “ देवराज इन्द्र और देवराज विरोचन दोनों ही प्रजापति के पास आत्म -जिज्ञासा के लिए गए और प्रजापति ने उन्हें ही गुह्योपदेश दिया । इन्द्र ने शंकाएं कीं , परन्तु विरोचन अशंक भाव से चला गया और उसने असुरजनों में आत्मपूजा का प्रसार किया । यही कारण है कि मिस्र के प्राचीन असुर राजाओं ने अपने मृत शरीरों को सजाकर बड़े-बड़े पिरामिडों में स्थापित किया , जिनका आश्चर्यजनक और रहस्यपूर्ण विवरण पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भूगर्भ से प्राप्त किया है । आत्मपूजन का यह विचार वास्तव में मूल रूप में सबसे पहले रावण ने ही प्रसारित किया था और उसके आदि उद्गाता देवाधिदेव रुद्र थे। दूसरा प्रश्न जो इसी आत्मपूजन से सम्बन्धित है और उपनिषद् में वर्णित है, ईश्वर या देवता के तत्त्व को स्वीकार न करके इस प्रजनन -विधान को यज्ञ कहा है । प्रजनन की घटना को जो इतना महत्त्व उस युग में दिया गया , यह एक अज्ञानमूलक जंगली प्रथा थी या विज्ञान का उच्च अंग था , इस सम्बन्ध में हम अपनी कोई राय प्रकट न कर केवल तथ्य पर ही प्रकाश डालते हैं । प्रजनन -विज्ञान चराचर प्राणियों में नर -नारी के मिथुन - संयोग से उत्पन्न होता है । इसलिए प्राचीन काल से प्रजा की वृद्धि , मैथुनी सृष्टि के महत्त्व पर प्रमुख पुरुषों का ध्यान गया और उन्होंने इस घटना को अत्यन्त चमत्कारिक और आश्चर्यजनक पाया कि किस प्रकार नर -नारी के संयोग से गर्भ स्थापित होकर एक नवीन प्राणी का जन्म होता है । और स्वाभाविक रूप से उस काल से पुरुषों का ध्यान नर -नारी के गुह्य प्रजनन - इन्द्रियों के महत्त्व की ओर गया । उन्होंने प्रजनन - इन्द्रियों को विश्व के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली तत्त्व के रूप में स्वीकार करके पूजित किया । कहा जाता है कि प्रजनन -विज्ञान को एक धार्मिक रूप देने का कार्य सबसे प्रथम रुद्र ने किया और उन्होंने एक हज़ार अध्याय के ‘ काम विज्ञान - शास्त्र का निर्माण किया । उन्होंने जननांग को सब कारणों का कारण
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।