अत्यन्त सन्तप्त हुए । रुद्र एक महाप्रतापी योद्धा थे ही । उनका बल असह्य था । उनका प्रभाव मरुतों पर बहुत था । ये मरुत् वर्तमान समरकंद या बिलोचिस्तान के आस -पास कहीं रहते थे। इस घटना के बाद रुद्र भी उनके साथ चले गए । इन मरुतों से देवराट् इन्द्र ने मित्रता कर ली थी और समय - समय पर देवराट् इन्द्र तथा देव रुद्र से सहायता लिया करते थे, परन्तु रुद्र विष्णु की भांति दैत्यों और दानवों के शत्रु थे ही नहीं । दैत्य और दानव भी उन्हें उसी प्रकार पूज्य पुरुष मानते थे तथा समय-असमय में रुद्र दैत्य - दानवों की भी वैसी ही सहायता करते थे जैसी देवों की । इस प्रकार अपने काल में रुद्र देव , दैत्य , दानव सभी में पूजित थे। फिर भी उन्हें अत्यन्त क्रोधी समझकर संहारक ही समझा जाता था । उनका दैत्य दानवों के गणों का संगठन इतना भयानक था कि उससे देव - दैत्य सभी भय खाते थे । सती की मृत्यु होने के कुछ काल बाद रुद्र ने हिमालय की राजकन्या पार्वती से विवाह किया। पार्वती ने रुद्र की यशोगाथा पर मोहित होकर स्वयं ही रुद्र से विवाह की याचना की । पार्वती की सेवा से सन्तुष्ट हो वे अब शान्त भी हो गए । अब तक उनके रुद्र के नाम के अतिरिक्त भव, पशपति , नीलकण्ठ आदि नाम भी थे । अब सब लोग उन्हें शिव शान्तिमूर्ति - कहने लगे । यहां देवी पार्वती से उन्हें दो पुत्रों की प्राप्ति हुई : एक गणपति , दूसरे कार्तिकेय। उन्होंने हिमवान् के अंचल में अपना कैलास नाम का मनोरम आश्रम बनाया और वहां रहने लगे । उधर रावण से खदेड़े हुए कुबेर ने भी उनके निकट ही अपनी अलकापुरी बसाई। इस प्रकार रुद्र (शिव ) का कुबेर और यक्षों से खूब मेल - जोल हो गया । एक प्रकार से यक्षपति कुबेर की रुद्र से मित्रता ही हो गई ।
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