44. देवाधिदेव रुद्र के दादा यम यद्यपि आदित्य थे तथा देवर्षि भी थे, परन्तु उन्होंने आर्य संस्कृति स्वीकार नहीं की , न ही वे आदित्यों में सम्मिलित हुए । देव , दैत्य , दानव सभी से उनका वरुण की भांति समभाव रहा । देवों में खटपट तो सूर्य ही करते थे। सूर्य यम के पिता थे , फिर भी वे पिता - माता दोनों से उपेक्षित थे। इसी से ये वरुण के आश्रित हुए तथा वरुण की सहयोग - नीति ही इन्होंने अपनाई थी । आदित्य यम को अपना कुटुम्बी और आत्मीय समझ पूज्य पुरुष मानते थे, पर उनकी देवों में यदा - कदा ही गणना करते थे। उनकी संतान आठ वसु भी अर्ध- देव माने जाते थे। रुद्र भी देवों से पृथक् ही रहे , पर वे बड़े तेजस्वी और प्रतापी थे। देवों की भांति उनका दैत्यों से भी सद्भाव था । बलि - पुत्र बाणासुर से तो उनके प्रगाढ़ मैत्री सम्बन्ध थे। वे बहत दिन तक उसकी नई राजधानी वन में रहे तथा बाण का बहत बल उन्होंने बढ़ाया । उसका शरीरबल बहुत था । उसकी तुलना सांड़ से की गई है । देव लोग जिन्हें दस्यु और अनार्य कहते थे, वे भी रुद्र के दरबार में अभय पाते थे। वे बड़े धनुर्धारी थे, नागों के परम मित्र और संरक्षक थे। उन्हें चोरों , डाकुओं और व्रात्यों का त्राता कहा गया है । पुंजिष्ठ और निषादों का भी उन्हें स्वामी बताया गया है । इनके क्रोध और बाणों से देव , दैत्य सभी भयभीत रहते थे और संकटकाल में देव , दैत्य , दानव, नाग - सभी रुद्र की शरण जाते थे। उनका प्रसिद्ध शस्त्र त्रिशूल था । __ वे नाद-विद्या के आगम थे। डमरू उनका वाद्य था । कहते हैं , अक्षर- समाम्नाय उन्होंने प्रादुर्भूत किया और सबसे प्रथम उन्होंने वाणी को उद्घोषित किया । वनस्पतियों से भी उन्हें प्रेम था । वे वनस्पतियों के स्वामी प्रसिद्ध थे। स्वभाव उनका उदार था । वे जैसे जल्द क्रुद्ध हो जाते थे, वैसे ही झटपट प्रसन्न भी हो जाते थे। काम -विज्ञान के भी आविष्कर्ता थे। प्रसिद्ध है कि हजार अध्यायों का कामशास्त्र उन्होंने रचा था , इसी से उन्हें कामजयी कहते हैं । इन्हीं सब कारणों से देव - दैत्य उनसे भय खाते तथा उनका आदर भी करते थे, पूज्य पुरुष समझते थे; परन्तु यज्ञ में भाग देते समय देव न यम को और न रुद्र को ही अपनी पंक्ति में बैठाना पसंद करते थे। पाठकों को ज्ञात है कि रुद्र को भी दक्ष ने एक कन्या दी थी , परन्तु रुद्र से वे कतराते भी थे। रुद्र भी दक्ष को कुछ न गिनते थे । वास्तव में रुद्र यज्ञ -पाखण्ड के समर्थक न थे। निस्संदेह उन्होंने कुछ ऋचाएं तैयार की थीं , परन्तु वे स्वयं वैदिक न थे। उनकी अपनी एक स्वतन्त्र परंपरा थी , जो ग्यारहों रुद्रों ने उन देशों में , जिन -जिनमें उनका प्रस्तार हुआ, प्रचलित कीं । उनके समर्थक उन्हें देवाधिदेव कहते थे और वे आत्म - यज्ञ को सबसे अधिक महत्त्व देते थे, जिसकी व्याख्या उनकी अपनी थी तथा उनके इस आत्म - यज्ञ के समर्थक बहत ऋषि उन दिनों सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप में फैले हुए थे । अभी जब परस्पर विरोधी भावनाएं चल ही रही थीं कि इसी समय रुद्र के श्वसुर
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