ऋष्यमूक पर्वत पर कभी सात ऋषियों के आश्रम थे। अब उनके स्थान पर सात विशाल ताड़ वृक्ष थे । उन्हीं के निकट किष्किन्धापुरी थी । रावण राजपथ , वीथी , अट्टालिकाएं देखता हुआ राजमन्दिर की पौर पर जा खड़ा हुआ । राजमन्त्रियों ने उसे अतिथि - अभ्यागत जान अर्घ्य- पाद्य से सत्कृत किया । परिचय पूछा , आने का कारण जाना । मन्त्री तार ने कहा - “ आप तनिक विश्राम कीजिए। वानरराज बालि सन्ध्योपासना को समुद्र - तट पर गए हैं । यह उनका नित्य -नियम है, आप उनसे युद्ध-याचना कर सकते हैं अथवा किसी वानर से द्वन्द्व रच सकते हैं , इससे हमारा भी मनोरंजन होगा । परन्तु रावण ने कहा - “ मन्त्रिवर, मुझे वानरराज के दर्शन की बड़ी उत्सुकता है, मैं वहीं जाकर उनसे युद्ध -याचना करूंगा। अन्य वानरों से द्वन्द्व करने का मेरा क्या प्रयोजन है ? ” मन्त्रियों ने कहा - “ यदि आपको अपने जीवन का मोह नहीं है तो आप समुद्र - तट पर चले जाइए । वहीं महातेजस्वी सुभट बालि से आपका साक्षात् हो जाएगा। " समुद्र - तट पर जाकर रावण ने देखा – बालि एकाग्रमन सूर्य पर दृष्टि दिए द्वितीय सूर्य के समान अचल भाव से समुद्र -जल में खड़ा है । रावण ने उच्च स्वर से कहा - “ युद्धं देहि ! युद्धं देहि ! ” बालि ने मुंह फेरकर महावीर्यवान रावण को देखा । सूर्य को जलांजलि दी । फिर जल से बाहर आकर कहा - “ आप कौन महाभाग मुझसे युद्ध-याचना कर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं ? " रावण ने कहा - “ मैं सात द्वीपों - सहित लंका अधीश्वर पौलस्त्य रावण हूं और गूढ़ उद्देश्य से आपसे युद्ध-याचना कर रहा हूं । आइए , आप भयभीत नहीं हैं तो युद्ध कीजिए । " बालि ने हंसकर कहा - “ अतिथि का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार किया जाता है। फिर आप महाप्रतिष्ठ हैं । परन्तु आप युद्ध -याचना करते हैं , आपका अभिप्राय गूढ़ है तो ऐसा ही हो । आप शस्त्र -पात कीजिए। " " नहीं वीर , आप निरस्त्र हैं, मैं मल्ल -युद्ध करूंगा। " “ तो ऐसा ही हो । ” रावण ने अपना परशुफेंक दिया । दोनों वीर समुद्र की सोनरेत में मल्लयुद्ध करने लगे । कुश्ती के दांव -पेच चलने लगे । दोनों अप्रतिम योद्धा थे, वे परस्पर एक - दूसरे की प्रशंसा करते हुए बड़ी देर तक मल्लयुद्ध करते रहे । दोनों के शरीर पसीने से लथपथ हो गए । युद्ध करते- करते उन्हें दो प्रहर का काल हो गया । अन्त में बालि ने रावण को परास्त कर उसके वक्ष और कण्ठ पर अपना चरण रखकर हंसते हुए कहा- “पौलस्त्य रावण , तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुई या अभी और कुछ इच्छा है ? " रावण ने भी हंसकर कहा - “ सन्तुष्ट हुआ इंद्रतनय , तू महावीर है । तुझमें अद्भुत बल है, विक्रम है । तेरी गति वायु के समान है । मैं विश्रवा मुनि का पुत्र , पौलस्त्य रावण सात द्वीपों - सहित लंका का अधिपति , तेरा अभिनन्दन करता हूं । तेरे बल की थाह के लिए मैंने तुझसे युद्ध किया था , क्योंकि मैं तुझसे मित्रता स्थापित करना चाहता था । अब अग्नि की साक्षी में तुझे अपना मित्र बनाता हूं । अब से स्त्री , पुत्र, नगर , राज्य, भोग, वस्त्र - सब वस्तुएं हमारी - तुम्हारी एक ही रहेंगी । हम - तुम दोनों मिलकर ही इनका उपभोग किया करेंगे। " रावण के ये वचन सुन बालि प्रसन्न हो गया । उसने उसके कण्ठ से अपना चरण हटाकर कहा - “ मैं तुझ पर प्रसन्न हूं । तू श्रेष्ठ कुल का वीर है ; पूज्य है , श्लाघ्य है । आ ,
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