भरतखण्ड में अजेय पुरुष हैं । परन्तु इनसे बिना चतुरंगिणी सेना के युद्ध नहीं हो सकता । इसलिए यदि तेरी इच्छा इनसे युद्ध की हो तो मैं गन्धर्वो की सेना तुझे दूंगा और सब भांति तेरा प्रिय करूंगा। " रावण ने श्वसुर को फिर अभिवादन किया और कहा - “ देव , मेरा उद्देश्य केवल युद्ध- जय ही नहीं है। मैं आर्यों की परम्परा पर रक्ष-संस्कृति की स्थापना करना चाहता हूं । आर्यों की खण्डनीति मुझे सह्य नहीं है। वे अपना अंग काट - काटकर तनिक- तनिक बात पर आर्यजनों को बहिष्कृत करते हैं । मैं सब आर्य, अनार्य , देव , दैत्य , असुर , नाग , आनव , मानव और आदित्यों तथा गत , आगत , समागत जनों को एक धर्म , एक संस्कृति के नीचे लाना चाहता हूं । इसके लिए मुझे सर्वप्रथम आर्यों को और देवों के दिक्पालों को जय करना होगा । मैं शीघ्र ही अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर आऊंगा। तभी मैं आपकी सहायता से भी लाभ उठाऊंगा। " गन्धर्वपति ने प्रसन्न होकर कहा - “ स्वस्ति, ऐसा ही कर पुत्र ! कामना करता हूं तेरा सदुद्देश्य सफल हो । किन्तु अब तू यहां से किष्किन्धापुरी जा । वहां के वानरों का राजा बालि बड़ा दुर्मद और बली है । उसे अपना मित्र बना । वह किष्किन्धा का राज्य दुर्गम है और तेरे मार्ग में है। उसकी मित्रता से तुझे लाभ होगा । " तू यहां से पश्चिम - दक्षिण दिशा में जा । सारा मार्ग पुष्प - लताओं से भरा हुआ मनोरम है। वह तुझे सुखद और सुगम होगा। वृक्षों के मधुर स्वादिष्ट फल खाता हुआ तू अपनी यात्रा कर। आगे तुझे एक महावन मिलेगा। फिर पर्वत - श्रेणियां। उन्हें पार करते ही तू पम्पा सरोवर में पहुंच जाएगा। वहीं ऋष्यमूक पर्वत पर मनोरम किष्किन्धापुरी है । वहां इन्द्र के पुत्र वानरराज बालि का राज्य है। " रावण यह सूचना पा प्रसन्न हुआ । उसने कहा - “ हे देव, मैं ऐसा ही करूंगा। ” उसने गन्धर्वराज की प्रदक्षिणा की और प्रियतमा गन्धर्व- नन्दिनी चित्रांगदा को विविध भांति का आश्वासन दे चल दिया । प्रियतम -विछोह से विदग्धा गन्धर्वपुत्री चित्रांगदा कटे वृक्ष की भांति भूमि में मूर्छित हो गिर गई ।
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