41. गन्धर्वपुरी से प्रस्थान कुछ काल रावण ने गन्धर्व- कुमारी के साथ यथेष्ट विहार किया । वह उस आनन्दलोक में प्रहृष्टमन रमण करता रहा । सुवासित गन्धर्वी सुरापान कर और शील - रूप और कोमल हाव - भाव में अद्वितीय गन्धर्व- कुमारियों के साथ नानाविध हास -विलास और रति कर जब वह तृप्त हुआ , तो उसने वहां से चलने का विचार गन्धर्वी चित्रांगदा पर प्रकट किया । सुनकर चित्रांगदा विकल हो गई। गन्धर्वराज को जब राक्षसेन्द्र का यह विचार ज्ञात हुआ तो उसने प्रसन्नमन वेदी रच , ढाई-ढाई मन की हजार विदरी स्वर्ण, रत्नाभरणों से तथा अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों से भरे सौ ऊंट , सात हजार घोड़े, पांच हजार हाथी और एक हजार रूप- लावण्यवती किशोरी कुमारी गन्धर्व- कन्याएं तथा सात देश रावण को वेदी पर संकल्प कर दिए । सब गन्धों ने उत्सव मना रात - भर पान - गोष्ठी की । अन्त में रावण ने एकान्त पा अपने श्वसुर मित्रावसु गन्धर्व से कहा - “ हे पूज्य , मेरा एक गूढ़ उद्देश्य है , जिसके कारण मैं सम्पूर्ण भरतखण्ड और आर्यावर्त में प्रच्छन्न भाव से भ्रमण कर रहा हूं । शीघ्र ही राजपरिच्छद- सहित आकर आपकी पुत्री और भेंट को ग्रहण करूंगा। ” उसका गूढ़ अभिप्राय समझ गन्धर्वपति ने कहा - “ जैसी तेरी इच्छा , मैं तुझ पर प्रसन्न हूं । कह, मैं तेरा अब और क्या प्रिय करूं ? " रावण ने बद्धांजलि हो श्वसुर को प्रणाम किया , उसकी परिक्रमा की । रावण ने पूछा - “तात , आप क्या बता सकते हैं कि इस समय भरतखण्ड में अजेय कौन है, जिनसे मैं युद्ध -याचना करूं ? " इस पर मित्रावस् गन्धर्व ने कहा - “ पुत्र , आर्यावर्त में महादर्जय सर्यवंशी दक्षिण कोशल- नरेश अनरण्य हैं । दूसरे महाविक्रम दशरथ अयोध्यापति हैं । आर्यों का यह सूर्यवंश हमारा परम्परा का वैरी है । मैं उस पुरातन वैर की बात तुझसे कहता हूं - जब दस राजाओं के युद्ध में प्रबल प्रतापी यदु, अनु , द्रुह्य आदि का निधन हुआ , तब द्रुह्य के पुत्र अंगार ने पश्चिमी आनव - नरेश अरुद्ध को जीतकर वहां अपना राज्य स्थापित किया । परन्तु सूर्यकुल के चक्रवर्ती मान्धाता ने उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया । पीछे मान्धाता का वध जब मथुरा के असुरों ने कर डाला, तब अंगार के पुत्र गन्धार ने गन्धारों का यह राज्य स्थापित किया तथा गान्धारों की यह नगरी बसाई। परन्तु ये आर्यजन जब - तब हम पर आक्रमण करते हैं । अभी थोड़े ही काल पूर्व मैंने मान्धाता के पुत्र कुत्स को युद्ध में बन्दी बनाया था , जिसके मोचन के लिए उसके भाई मुचुकुन्द और अम्बरीष ने गन्धर्वो पर अभियान किया था । अब कुत्स तो लज्जा के मारे राज्य छोड़ नर्मदा तट पर चले गए हैं और मुचुकुन्द ने माहिष्मती बसाई है, जिसे हैहय महिष्मन्त ने जय कर अपनी राजधानी बनाया है । तब वहां हैहय तालजंघ के बल से बली कार्तवीर्य अर्जुन सहस्रबाहु राज्य कर रहे हैं । अम्बरीष विकट युद्धकर्ता थे। सो इस समय दशरथ - अनरण्य आर्यावर्त में और कार्तवीर्य हैहय अर्जुन
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