आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्मृत पुरातन रेखाचित्र हैं , जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देखकर सारे संसार ने उन्हें अन्तरिक्ष का देवता मान लिया था । मैं इस उपन्यास में उन्हें नर - रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूं । ‘ वयं रक्षाम : एक उपन्यास तो अवश्य है; परन्तु वास्तव में वह वेद, पुराण, दर्शन और वैदेशिक इतिहास - ग्रन्थों का दुस्सह अध्ययन है । आज तक की मनुष्य की वाणी से सुनी गई बातें , मैं आपको सुनाने पर आमादा हूं। मैं तो अब यह काम कर ही चुका । अब आप कितनी मार मारते हैं , यह आपके रहम पर छोड़ता हूं । उपन्यास में मेरे अपने जीवन भर के अध्ययन का सार है, यह मैं पहले ही कह चुका हूं। उपन्यास में व्याख्यात तत्त्वों की विवेचना मुझे उपन्यास में स्थान - स्थान पर करनी पड़ी है। मेरे लिए दूसरा मार्ग था ही नहीं । फिर भी प्रत्येक तथ्य की सप्रमाण टीका के बिना मैं अपना बचाव नहीं कर सकता था । अत : ढाई सौ पृष्ठों का भाष्य भी मुझे अपने इस उपन्यास पर रचना पड़ा । अपने ज्ञान में तो मैं सब कुछ कह चुका । पर अन्तत : मेरा परिमित ज्ञान इस अगाध इतिहास को सांगोपांग व्यक्त नहीं कर सकता था । संक्षेप में मैंने सब वेद , पुराण, दर्शन , ब्राह्मण और इतिहास के प्राप्तों की एक बड़ी - सी गठरी बांधकर इतिहास -रस में एक डुबकी दे दी है। सबको इतिहास -रस में रंग दिया । फिर भी यह इतिहास -रस का उपन्यास नहीं ‘ अतीत -रस का उपन्यास है । इतिहास -रस का तो इसमें केवल रंग है, स्वाद है, अतीत -रस का । अब आप मारिए या छोड़िए, आपको अख्तियार है । एक बात और , यह मेरा एक सौ तेईसवां ग्रन्थ है । कौन जाने , यह मेरी अन्तिम कलम हो । मैं यह घोषित करना आवश्यक समझता हूं कि मेरी कलम और मैं खुद भी काफी घिस चुके हैं । प्यारे पाठक, लगुडहस्त मित्र यह न भूल जाएं । ज्ञानधाम – प्रतिष्ठान शाहदरा, दिल्ली 26 जनवरी , 1955 - चतुरसेन 1. उक्त भाष्य इसी उपन्यास के शारदा प्रकाशन , भागलपुर द्वारा प्रकाशित दूसरे संस्करण में देखा जा सकता है ।
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।