पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१२४

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बैठ गया । करती । " ___ “ परन्तु आपकी आनन्द और श्रद्धा की मूर्ति तो उसी ने मेरे हृदय में अंकुरित की है। तभी तो आपके चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने इतनी दूर आया हूं । " ____ “ जाइए, बातें न बनाइए। श्रद्धांजलि उन्हीं चरणों में अर्पित कीजिए जो नूपुरध्वनि से लंका के मणिमहालय को मुखरित करते हैं । अपात्र में दान करने से पुण्यक्षय होता है ऐसा नीतिकारों का वचन है । " __ “ आपका वचन प्रमाण है । किन्तु अभयदान मिले तो कुछनिवेदन करूं ! " मायावती हंस दी । उसने हाथ उठाकर अभिनय - सा करते हुए कहा - “ अभय , लंकाधिपति , आपको अभय ! " " तो मुझे कहने दीजिए कि रावण लंकाधिपति नहीं , आपका दास है। उसे इन चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने दीजिए। " हठात् रावण मायावती के सम्मुख घुटनों के बल मायावती ने भयभीत होकर इधर -उधर देखा। उसका मुंह लज्जा से लाल हो गया । उसने कहा - “ उठिए, यह आप क्या कर रहे हैं ? " __ “ आराधना कर रहा हूं - उस देवी की , जिसकी अप्रतिम छवि मेरे रक्त के प्रत्येक बिन्दु में व्याप्त हो गई है । क्षमा करो सुन्दरी, यह रावण आपका दास है। ” इतना कहकर उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर होठों से लगा लिए। हठात् रावण के इस आचरण से मायावती विचलित -विस्मित हो गई । वह भीत चकित हरिणी की भांति कांपने लगी । उसके मुंह से बात न निकली। एक अकथनीय आनन्द से वह विह्वल हो उठी, पर तुरन्त ही सावधान होकर उसने अपना हाथ खींच लिया और कहा - “यह क्या लंकेश्वर ? " ___ “ स्वीकार करता हं , मैंने अपराध किया है । किन्तु यह आपकी इस अतुलनीय रूप माधुरी का सत्कार है। इस दिव्य ज्योति की मानसी पूजा है। आप रुष्ट क्यों हो गईं? " _ “ रुष्ट नहीं हूं , परन्तु आप मर्यादा से बाहर आचरण कर रहे हैं । " “ देवी प्रसन्न हों , निस्सन्देह अकिंचन आपकी कृपा के योग्य नहीं , पर इस दिव्य सौंदर्य की पूजा से तो आप मुझ दास को वंचित मत कीजिए। " ___ “ यह क्या आप व्यंग्य कर रहे हैं लंकेश? " मायावती ने अपनी प्रशंसा सुनकर असंयत होकर धड़कते हुए हृदय से कहा। ___ “ नहीं देवी , मैं सच कह रहा हूं। मैं चाटुकारिता नहीं करता । मैं आप पर मुग्ध हूं, मेरा हृदय आप पर न्योछावर है। " “ यह तो आप मन्दोदरी के प्रति अन्याय कर रहे हैं । " “ मन्दोदरी को निस्सन्देह मैं प्राणों से अधिक प्यार करता हूं, पर आपके दिव्य रूप की तो मैं पूजा करता हूं, परन्तु आपके क्रोध से भय खाता हूं। " मायावती के आग्रहशील हृदय में प्रवृत्ति की लहरें उमड़ने लगीं । उसने मन्द- मन्द मुस्कराकर कहा - “ वीरध्वज लंकेश भी भय खाते हैं स्त्रियों से , यह तो लंकेश के लिए प्रशंसा की बात नहीं है। ” रावण के नेत्रों की तृष्णा उभर आई , उसने कहा - “ आह, तब आप मुझ पर एकदम निर्दय नहीं हैं । "