35 . वैजयन्तीपुरी दण्डकारण्य के दक्षिण भाग के पास वैजयन्तीपुर था , जहां का स्वामी असुरों का एक एकाधिपति , कुलीतरवंशी तिमिध्वज शम्बर था , जो सौ दुर्गों का स्वामी था । शम्बर की राजमहिषी दितिपुत्र मय दैत्य की पुत्री तथा रावण की महिषी मन्दोदरी की सगी बहन थी । उसका नाम माया था । माया अपूर्व रूप - सुन्दरी थी । उसका रंग तपाए हुए सोने के समान कान्तिमान् था और उसके अंगप्रत्यंग इतने सुडौल थे कि देखकर उसके रचयिता को धन्य कहना पड़ता था । असुरराज शम्बर जैसा प्रतापी और सम्पन्न था , वैसा ही शालीन , वीर और महिमावान् भी था । रावण विचरण करता हुआ अकस्मात् ही शम्बर की राजसभा में जा पहुंचा। ज्वलन्त अग्नि -शिखा के समान तेजस्वी एक तरुण को बहुमूल्य मणियों के भूजबंद और महार्घ मरकतमणि का कटिबन्ध पहने , विशाल बाह, प्रशस्त वक्ष, उन्नत ललाट , उत्फुल्ल नयन और कृष्णकाकपक्ष पर मणिमुकुट पहने , कन्धों पर दुर्धर्ष परशु रखे, लापरवाही से नगर के राजपथ पर अग्रसर होते देखा तो बहुत जन कौतूहल से उसके पीछे हो लिए। रावण चारों ओर नगर की सुषमा निहारता हुआ , गवाक्षों से झांकती हुई पुरवधुओं पर कटाक्ष करता हुआ , असुर बालकों , याचकों और कन्याओं को स्वर्ण देता हुआ , हंसता -मुस्कराता ,हंस की चाल से चलता राजपथ पर राज - महालय की ओर चला जा रहा था । असुर नागर आश्चर्यचकित हो इस तेजस्वी आगन्तुक एकाकी परदेशी को देख रहे थे। किसी का भी साहस उससे परिचय पूछने का न होता था । राजद्वार तक पहुंचते - पहुंचते बहुत भारी भीड़ उसके साथ लग गई। राजद्वार पर द्वार - पुरुष ने पूछा - “ महाभाग, आप कौन हैं और किस अभिप्राय से आप राजद्वार पर पधारे हैं ? आपने अपने जन्म से किस कुल को धन्य किया है ? आज्ञा कीजिए तो मैं स्वामी से निवेदन करूं । " द्वार - पुरुष का ऐसा विनय देख रावण प्रसन्न हो गया । उसने अपने कण्ठ से बड़े- बड़े मोतियों की माला उतार उसके कण्ठ में डाल दी और हंसकर कहा - “ तेरे विनय से संतुष्ट हूं । तू अपने स्वामी से जाकर कह कि द्वार पर एक अतिथि आया है, राजदर्शन का इच्छुक है । अपना शेष परिचय मैं तेरे स्वामी ही को दूंगा । " ऐसा बहुमूल्य उपहार पाकर और रावण के गरिमामय वचन सुनकर द्वार - पुरुष ने झुककर रावण का अभिवादन किया और कहा - “ जैसी आपकी आज्ञा ! मैं अभी स्वामी से जाकर निवेदन करता हूं । तब तक महानुभाव इस आसन पर विराजमान हों ! ” यह कहकर द्वार - पुरुष शम्बर की सभा में गया । जाकर उसने करबद्ध प्रार्थना की - “ महीपाल , एक महिमावान् तेजस्वी अतिथि राजद्वार पर उपस्थित है। वह राजदर्शन की प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है । मुझ दास को उसने यह मुक्तामाल प्रसन्न होकर प्रदान की है । अपना परिचय वह स्वयं देना चाहता है । आगे देव प्रमाण हैं । "
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