दी थी । रावण के मन में तीन तत्व काम कर रहे थे । उसका पिता शुद्ध आर्य और विद्वान् वैदिक ऋषि था , उसकी माता शुद्ध दैत्यवंश की थी , उसके बन्धु - बान्धव बहिष्कृत आर्यवंशी थे। उन्हें क्रिया - कर्म तथा यज्ञ से च्युत कर दिया गया था । अब उसने भारत और भारतीय आर्यों को दलित करने , उन पर आधिपत्य स्थापित करने और सब आर्य - अनार्य जातियों के समूचे नृवंश को एक ही रक्ष -संस्कृति के अधीन समान भाव से दीक्षित करने का विचार किया । तत्कालीन परम्पराओं के अनुसार उसने नृवंश का सारा धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ में लेने का संकल्प दृढ़ किया । देवों और आर्यों का संगठन उस काल में अत्युत्तम था । उन्होंने लोकपालों , दिक्पालों की स्थापना की थी , जो देवभूमि और आर्यदेश के प्रान्त भाग की रक्षा करते थे। देवों की प्रवर जातियों में तब मरुत्, वसु और आदित्य ही प्रमुख थे। चोटी के पुरुषों में इन्द्र , यम , रुद्र, वरुण, कुबेर आदि थे । यम , वरुण, कुबेर और इन्द्र ये चार वंश - परम्परा से लोकपाल थे। रावण ने देवों और आर्यों के इस संगठन को जड़ - मूल से उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। उसने सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों ही प्रकार के विप्लवों का सूत्रपात किया । उसका मेधावी मस्तिष्क और साहसिक शरीर ही यथेष्ट था , तिस पर उसके साथी -सहयोगी , सुमाली, मय, प्रवण, प्रहस्त , महोदर , मारीच, महापाव, महादंष्ट्र, यज्ञकोप , खर , दूषण , त्रिशिरा, अतिकाय , अकम्पन आदि महारथी सुभट और विचक्षण मन्त्री थे। कुम्भकर्ण- सा भाई और मेघनाद- सा पुत्र था । रावण की सामरिक शक्ति अब चरम सीमा तक पहुंच गई थी । खूब सलाह - सूत करके और आगा-पीछा विचारकर उसने रामेश्वर के निकट मन्दराचल की समुद्रमग्न पर्वत - शृंखला के सहारे दक्षिण भारत से सम्बन्ध स्थापित किया । इस समय दक्षिण भारत में दो प्रधान दल थे - एक वे जो बहिष्कृत आर्य थे; दूसरे वे जो विदेशों से आकर भारत - समुद्र के उपकूलों पर आ बसे थे। ये दल आर्य- अनार्य के नाम से पुकारे जाते थे। रावण ने दोनों को अपने साथ मिला लिया । सबसे प्रथम उसने यम , कुबेर, वरुण और इन्द्र के चारों देवलोकों के लोकपालों को और फिर आर्यावर्त को जय करने का संकल्प किया । अब वह खूब चाक - चौबन्द होकर सुअवसर और घात लगाने की ताक में बैठ गया ।
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