दिए जाते थे। धीरे- धीरे इन बहिष्कृत जनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों में दस्यु , महिष , कपि , नाग , पौण्ड्र, द्रविड़ , काम्बोज, पारद, खस , पल्लव, चीन ,किरात, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां संगठित हो गई थीं । प्रारम्भ में केवल व्रात्य ही जाति - च्युत किए जाते थे, पर पीछे यह निष्कासन उग्र होता गया । सगर ने अपने पिता के शत्रु शक, यवन , काम्बोज , चोल, केरल आदि कुटुम्बों को जीतकर उनका समूल नाश करना चाहा पर वशिष्ठ के कहने से उन्हें वेद- बहिष्कृत करके दक्षिण के अरण्यों में निकाल दिया । इसी प्रकार नहुष पुत्र ययाति ने नाराज होकर अपने पुत्र तुर्वशु को सपरिवार जातिभ्रष्ट करके म्लेच्छों की दक्षिण दिशा में खदेड़ दिया था । विश्वामित्र ने भी अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने पर अपने पचास कुटुम्बों को दक्षिणारण्य में निष्कासन दिया था , जिनके वंशधर दक्षिण में आकर आन्ध्र , पौण्ड्र , शबर , पुलिन्द आदि जातियों में परिवर्तित हो गए थे । ___ इस काल में लोभी, धोखेबाज , ठग , व्यापारी, वणिक् को पणिक कहते थे। इसका अर्थ · पणलोभी है । ऐसे लोभी पणिकों को भी आर्य लोग बहिष्कृत करके दक्षिण में निष्कासित करते थे। दक्षिण में आकर भी ये लोग पण्यकर्म करने लगे माल खरीदने -बेचने का व्यापार करने लगे। आगे चलकर इनकी एक जाति ‘पाण्य ही बन गई और जिस प्रदेश में यह बसे वह प्रदेश भी ‘ पाण्यन्य के नाम से विख्यात हुआ । ऐसे ही निष्कासित चोरों की एक शाखा दक्षिण में आकर चोल जाति और प्रान्त में परिणत हो गई। पणियों ने सागवान के जहाज बनाकर समुद्र के द्वीप - पुंजों में दूर - दूर तक जाकर व्यापार -विनिमय आरम्भ कर दिया । उनमें से बहुत - से पणिक मध्यसागर के किनारे बस्तियां बसाकर बस बए । आगे समुद्र के उस पार जाकर इन्हीं ‘ पणियों और चोलों ने उन देशों को आबाद किया जिन्हें आज हम ‘ फनीशिया और चाल्डिया कहकर पुकारते हैं । इस समय कोलों और द्रविड़ों से लेकर लंका, मेडागास्कर, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तक जितनी ‘ इथियोपिक उप - जातियां हैं , वे सब इन्हीं बहिष्कृत आर्यों की परंपरा में हैं तथा उन सबका एक ही वंश और संस्कृति है। इनमें बहुत - सी तो भारत ही में दक्षिण में बस गई थीं और बहुत - सी अन्य द्वीपसमूहों तक फैल गई थीं , जिनके उत्तराधिकारी आज समस्त एशिया , अफ्रीका , अमेरिका और यूरोप के देशों में मिलते हैं । रावण के शरीर में शुद्ध आर्य और दैत्यवंश का रक्त था । उसका पिता पौलस्त्य विश्रवा आर्य ऋषि था और माता दैत्यराज- पुत्री थी । उसका पालन -पोषण आर्य विश्रवा के आश्रम में उसी के तत्वावधान में हुआ । उसे शिक्षा -दीक्षा भी उसके पिता ने अपने अनुरूप ही दी थी । उस समय वेद का जो स्वरूप था , उसे उसने अपने बाल्यकाल में अपने पिता से पढ़ लिया था । उस काल तक वेद ही आर्यों का एकमात्र साहित्य और कर्म - वचन था । जो केवल मौखिक था - लेखबद्ध न था । रावण के मातृपक्ष में दैत्य - संस्कृति थी । दैत्य और असुर , देवों तथा आर्यों के भाई - बन्द ही थे, परन्तु रहन - सहन , विचार -व्यवहार में दोनों में बहुत अंतर था । विशेषकर बहिष्कृत जातियां आर्यों से द्वेष और घृणा करती थीं । बहिष्कार का सबसे कटु रूप ऋषियों -पुरोहितों द्वारा संस्कार क्रिया से उन्हें वंचित रखना तथा यज्ञों से बहिष्कृत समझना था । यद्यपि अभी यज्ञों का भी विराट रूप न बना था जो आगे बना, फिर भी यह एक ऐसी अपमानजनक बात थी जिसने इन जातियों में आर्यों के विरुद्ध दैत्यों और असुरों से भी अधिक – जो आर्यों के दायाद बान्धव थे -विद्वेष और विरोध की ज्वाला सुलगा
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