31 . राक्षसेन्द्र रावण रावण ने अब अपनी अजेय सामर्थ्य और प्रबल प्रतिभा से लंका का महाराज्य सुदृढ़ किया । मय दानव की पुत्री मन्दोदरी से विवाह करके उसने दैत्यपति विरोचन की दौहित्री वज्र -ज्वाला से अपने भाई कुम्भकर्ण का और गन्धर्यों के राजा शैलूष की पुत्री सामा से विभीषण का विवाह किया । इससे ये दोनों प्रबल और प्रतिष्ठित कुल भी उसके सम्बन्धी बन गए। राक्षस जाति का भली भांति संगठन कर वह रक्ष - संस्कृति का प्रतिष्ठाता हो गया । इस तेजस्वी महापुरुष ने अपने को समुद्र का रक्षक घोषित कर राक्षसेन्द्र की उपाधि धारण की और अपने बाहुबल से लंका महाराज्य की स्थापना कर ली , जिसके अन्तर्गत यवद्वीप, सुमात्रा , मलाया , कुशद्वीप और मेडागास्कर आदि सात महाद्वीप तथा अन्य अनगिनत छोटे छोटे द्वीपसमूह भी थे। उसने अपने नाना सुमाली को अपना प्रधान सलाहकार बनाया तथा प्रवण, प्रहस्त , महोदर , मारीच, महापाश्र्व , महादंष्ट्र , यज्ञकोष , दूषण, खर,त्रिशिरा, दुर्मुख , अतिकाम , देवान्तक, अकम्पन आदि महारथी, रणमत्त , नीतिवन्त , यशवन्त , अनुगत , उच्चवंशीय राक्षसों को अपना मन्त्री , सेनापति , नगरपाल आदि बनाया । ये सब मन्त्री और सेनापति राजनीति के महापण्डित थे। स्वयं रावण भी नीति और वेद का महान् पण्डित था । वह दुर्मद रावण अकेला ही अजेय योद्धा और नीतिविशारद था । अब कुम्भकर्ण जैसे वीर भाई , ऐसे योग्य मन्त्री और सेनानायकों को पाकर उसका बल बहुत बढ़ गया । शीघ्र ही उसे पुत्ररत्न की उपलब्धि हुई । उसका नाम रखा मेघनाद। वह द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़कर सब शास्त्रों तथा शस्त्रों में निपुण हो गया । रावण के इस पुत्र में भी पिता का शौर्य और तेज था । इसके अतिरिक्त दूसरी पत्नियों से रावण को त्रिशिरा , का । देवान्तक ,नरान्तक , अतिकाम , महोदर, महापाव आदि अनेक और पुत्र भी हुए, जो महाकाल के समान दुर्जय योद्धा थे। रावण के रनवास में अनेक दैत्य , दानव , नाग और यक्ष -वंश की सुन्दररियां थीं । रावण ने मेघनाद का विवाह भी दानव की कन्या सुलोचना से किया । इस प्रकार पुत्र , परिजन , अमात्य , बान्धव और राक्षसों से सम्पन्न वह रावण परम ऐश्वर्य और सामर्थ्य का प्रतीक हो गया । इस प्रकार स्वर्ण-लंका में अपना महाराज्य स्थापित करके तथा सम्पूर्ण दक्षिणवर्ती द्वीपसमूहों को अधिकृत करके अब उसका ध्यान भारतवर्ष की ओर गया । लंका भारत ही के चरणों में थी । उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड में ही आर्यों के सूर्य -मण्डल और चन्द्रमण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनों मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था । उन दिनों आर्यों में यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक शृंखला भंग करनेवालों को समाज- बहिष्कृत कर दिया जाता था । दण्डनीय जनों को जाति - बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित्त , जेल और जुर्माने के दण्ड भी दिए जाते थे। प्राय : ये ही बहिष्कृतजन दक्षिणाराण्य में निष्कासित कर
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