पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१०८

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कुशान वंश को पराजित करके भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया था । इसी वंश का दौहित्र तृतीय वाकाटक नरेश था । दैत्यों , दानवों और नागों का जो परिचय हम दे चुके हैं , आर्यों से उनके कौम्बिक सम्बन्ध भी थे। ये आदित्यों के दायाद बान्धव थे इससे इनमें और आर्यों तथा देवों में बहुत कुछ सांस्कृतिक साम्य था । प्रह्लाद और बलि प्रसिद्ध यज्ञकर्ता थे। उनके आर्यों के साथ सम्बन्ध भी होते थे। पुलोमा दैत्य की कन्या शची पौलोमी इन्द्र को ब्याही थी । उसकी कन्या जयन्ती प्रथम शुक्र उशना को ब्याही थी । वृषपर्वा दैत्य की कन्या शर्मिष्ठा का विवाह ययाति से हुआ था । दैत्य - दानवों का मेल था , यह बात भली भांति कही जा चुकी है। आदित्यों से उनकी लड़ाई बहुत करके जातीय थी - धार्मिक नहीं । परन्तु राक्षसों ने उनके साथ धर्मयुद्ध छेड़ दिया था । व्रात्य बहिष्कृत-क्रियारहित आर्य थे। महावृष, मूंजवन, वाह्लीक, पंजाब, दक्षिणी जनस्थान, पश्चिमी पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान में रहते थे । पारावत रावी - तट पर , आर्जिक भारत के उत्तर - पश्चिम में रहते थे। संभवतः वर्तमान भील , गोंड, संथाल, सौर, कोल , उस काल के कपि , महिष , ऋक्ष , राक्षस , कोल आदि जातियों ही के वंशधर हैं । दक्षिणारण्य में यद्यपि बहिष्कृत आर्य ही जाते थे, परन्तु वहां कुछ आर्यजन स्वेच्छा से भी बस गए थे। अगस्त्य मुनि राम के दक्षिणारण्य में जाने से पूर्व ही वहां पर आर्यों का एक उपनिवेश स्थापित कर चुके थे। शरभंग ऋषि तथा परशुराम भी यहां रहते थे । जनस्थान में बहुत - से ऋषि आश्रम बनाकर रहते थे। पुलस्त्य के वंशज तो वहां थे ही । इस प्रकार इस काल में , जिसका वर्णन इस उपन्यास में है , दक्षिण का आर्यावर्त से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध हो चुका था । ये सभी आर्य ऋषि - मुनि बहिष्कृत आर्यजनों की बड़ी भारी सहायता करते थे । संक्षेप में , उस काल में दैत्य -दानव श्वेत पर्वत - सफेद कोह पर , देवगण समेर पामीर पर , राक्षस लंका और दक्षिणारण्य में , पिशाच-यक्ष हिमालय के अंचल में , गन्धर्व और अप्सरा हेमकूट - कराकुरम पर, नाग और तक्षक निषध -निस्सा पहाड़ पर , ऋषि नीलांचल में , पितृ शृंगवान् पर्वत पर, जो सुमेरु से पश्चिम और काश्यप सागर के निकट है, रहते थे । कालान्तर में इन स्थानों में हेरफेर हुआ । भूतगण भूटान में रहते थे । हमने पीछे बताया कि आर्यों के भारत में आने से पूर्व मनुर्भरतों का भारतवर्ष में राज्य था । जिस भूभाग में यह मनुर्भरत राज्य करते थे, वह भरतखण्ड कहाता था । प्रियव्रत के पुत्र नाभि को यह देश मिला था और पीछे भरत के नाम पर उसे भारत नाम दिया गया था । इन भरतों के भी यहां के अनार्यों से बहुत युद्ध हुए । संभवतः स्वारोचिष मन्वन्तर में चैत्रवंशी राजा सुरथ कोला नामक प्रान्त का स्वामी था । उसी से संभवतः महिषों के नेता महिषासुर का युद्ध हुआ । राजा भयभीत हो जंगलों में भाग गया और उसकी महिषी दुर्गादेवी ने सम्मुख युद्ध में महिषासुर का वध किया । इसी वीर देवी ने शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर सरदारों तथा चण्ड - मुण्ड नामक उनके दो सेनापतियों का हनन किया । पीछे यही राजा सुरथ दैत्य मधु - कैटभ के साथ प्रलय -काल में विष्णु - सूर्य से लड़े थे । इस समय भी आर्यावर्त के बाहर भरतखण्ड के पश्चिमोत्तर खण्ड में मनुर्भरतों, के तथा पूर्व के आर्यजनों के जनपद और राज्य थे। दक्षिणारण्य में बहिष्कृतों , आर्यों तथा