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आगरेकी शाही इमारतें

खेला करती हैं। यह रौज़ा एक बाग़के भीतर है। उसमें चन्दन, इलायची, सुपारी और मोलसिरी आदिके अनेक पेड़ हैं। फूल भी, उसमें, नाना प्रकारके होते हैं। वे सब ऋतुओंमें खिला करते हैं। इस रौज़ में कई लेख हैं। मुमताज़-महलकी क़बरपर जो लेख है वह १६३१ ईसवीका है और शाहजहाँकी क़बरपर जो है वह १६६७ का है। बाहर जो लेख हैं उनमेंसे एक १६३७ ईसवीका है; दूसरा १६३९ का; और तीसरा १६४८ का। इससे जान पड़ता है कि जैसे-जैसे इसके भाग तैयार हुए हैं वैसे ही वैसे उनपर लेख लिखे गये हैं। २२ वर्षतक इसमें काम जारी रहा था; और सवा तीन करोड़ रुपये इसके बनाने में खर्च हुए थे।

छीपी-टोला महल्लेमें अलीबदींखाँका हम्माम; दरबार शाहजी महल्ले में शाह वलायतकी दरगाह; चौकमें अकबरी मसजिद, हीरामनके बाग़ में काली समजिद और लोहेकी मण्डीमें मुखन्निसों (क्लीबों) की मसजिद भी पुरानी ऐतिहासिक इमारतें हैं।

जोधपुरके राजा जसवन्तसिंहकी छतरी भी, आगरेमें, एक मशहूर जगह है। वह एक बाग़के बीचमें है। छत्रा अभी खूब अच्छी हालतमें है। उसमें लाल पत्थर लगा हुआ है। इसका काम तारीफके क़ाबिल है। जसवन्तसिंह दाराशिकोहके पक्षपाती थे। १६७७ ईसवीके लगभग क़ाबुलमें उनकी मृत्यु हुई थी। उस समय औरंगजेब बादशाह था। अतएव सम्भव नहीं कि राजा जसवन्तसिंहका अग्निसंस्कार आगरमें हुआ हो। शायद उनकी यादगारमें यह छत्री, पीछेसे, बनवायी गयी हो।