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लेखाञ्जलि

पहले भी यहां पर बाद लगढ़ नामक एक क़िला था। १५०२ ईसवीमें, भूकम्पसे, उसे बहुत हानि पहुँची थी। १५५३ ईसवीमें बारूदके उड़नेसे तो वही बिलकुल ही बरबाद हो गया था। यदि अकबरने इस किलेको बिलकुल ही गिराकर नये सिरेसे बनवाया तो उसे इसका बनवानेवाला कहना बहुत ठीक है। इस क़िलेके बनवाने में ३५ लाख रुपये ख़र्च हुए थे। ८ वर्ष तक इसका काम जारी रहा था।

मोती-मसजिद क़िलेके भीतर, बहुत ऊँचेपर, है। उसपर चढ़कर जानेके लिए दो तरफसे सीढ़ियाँ हैं। उसके बाहर लाल पत्थर लगा है। वह पूर्व-पश्चिम २५५ फुट और उत्तर-दक्षिण १९० फुट है। बाहरसे देखने में वह उदासीन मालूम होती है। परन्तु उसका भीतरी भाग बिलकुल सङ्गमरमरका है। इस कारण बाहरकी उदासीनता भीतरकी चमकसे ढक जाती है। मसजिदके सामनेका प्राङ्गण बहुत बड़ा है। मापमें वह १५५ फुट मुरब्बा है। ख़ास मसजिदमें बड़े-बड़े खम्भोंकी तीन क़तारे हैं। खम्भे बहुत अच्छे हैं। खम्भोंके ऊपर जो मिहराबें हैं वे देखने लायक़ हैं। इस मसजिदमें तीन गुम्बज़ हैं; उनमेंसे बीचवाला सबसे बड़ा है। इसमें संगमरमरकी जालीका काम बड़ा ही मनोहर है। मसजिदके चारों कोनोंपर चार मीनार हैं। नमाज़ पढ़नेके दीवानख़ानेमें सङ्गमरमर और सङ्गमूसाके टुकड़े बड़ी खूबीसे जड़े हुए हैं। ८९९ आदमी, एक साथ, इसमें नमाज़ पढ़ सकते हैं। यह मसजिद अपने सादेपनके लिए प्रसिद्ध है। १६४८ से १६५५ ईसवी तक इसमें काम होता रहा था। तब यह बनकर तैयार हुई थी। इसके बनवानेमें तीन लाख रुपया ख़र्च हुआ था।