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दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

योजनाका पूरा-पूरा प्रबन्ध न हो। जेलों में भी हमारी शुश्रूषा सर्वदा हुआ करती है। इसीसे हम कहते हैं कि भारतमें तो हमारा एकाधिपत्य है।

बहुत समय हुआ, हमने अपने अपूर्व, अलौकिक और कौतूहलोद्दीपक चरितका सारांश "प्रदीप" के पाठकोंको सुनाकर उन्हें मुग्ध किया था। उसे बहुत लोग शायद भूल गये हों। इससे उसकी पुनरावृत्ति आज हमें करनी पड़ी। पाठक, हम नहीं कह सकते कि हमारा यह चारु चरित सुनकर आप भी मुग्ध हुए या नहीं। कुछ भी हो, हमने अपना कर्तव्य कर दिया। आप प्रसन्न हों या न हों, पर इससे हम कितने प्रसन्न हैं, यह हम लिख नहीं सकते!

[मार्च १९२४]

समाप्त