पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/२०२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९४
लेखाञ्जलि

हो जाते तो प्रतिशावकके लिए तत्त्वावधायकपर पचास डण्डे लगते थे।

चीनकी विवाह-विधिमें भी हमारी विशेष प्रतिपत्ति थी। पुत्रकन्याकी सम्मति लिये बिना ही उनका पहला पाणिग्रहण करानेका अधिकार माता-पिताको प्राप्त था। परन्तु दूसरा विवाह वे न करा सकते थे। यदि वे इस नियमका उल्लङ्घन करते तो उनपर तड़ातड़ अस्सी डण्डे पड़ते थे। विवाह-सम्बन्ध स्थिर करके यदि कन्याका पिता उसका विवाह किसी और वरके साथ कर देता तो उसे भी अस्सी डण्डे खाने पड़ते। जो लोग अशौच-कालमें विवाह कर लेते थे उनकी पूजा पूरे एक सौ दण्डाघातोंसे की जाती थी। स्वामीके जीवन-कालहीमें जो रमणियाँ सम्राट् द्वारा सम्मानित होतीं, वे, विधवा होनेपर, पुनर्विवाह न कर सकती थीं। यदि कोई अभागिनी इस क़ानूनको तोड़ती तो उसे पुरस्कृत करनेके लिए हमें सौ बार उसके कोमल कलेवरका चुम्बन करना पड़ता।

ये हुईं पुरानी बातें। अपना नया हाल सुनाना हमारे लिए, इस छोटेसे लेखमें, असम्भव है। अब यद्यपि हमारे उपचारके ढंग बदल गये हैं और हमारा अधिकार-क्षेत्र कहीं-कहीं सङ्कुचित हो गया है, तथापि हमारी पहुँच नयी-नयी जगहोंमें हो गयी है। आजकल हमारा आधिपत्य केन्या, ट्रांस्वाल, केपकालनी आदि विलायतोंमें सबसे अधिक है। वहाँके गोरे कृषक हमारी ही सहायतासे हबशी और भारतवर्षी कुलियोंसे बारह-बारह, सोलह-सोलह घण्टे काम कराते हैं। वहाँ काम करते-करते, हमारा प्रसाद पाकर, अनेक सौभाग्यशाली