बना था उनकी काररवाई देखिये। किसानोंके कुछही इने-गिने प्रतिनिधियोंने उनकी तरफ़से बहस करके उनके मतलबकी बातें कहीं। बाकीके मेम्बर केवल कौंसिलके कमरेकी शोभा बढ़ाते रहे। यह तो इन प्रतिनिधियोंके कर्तव्यपालनका हाल है। किसान इतने अज्ञ और इतने मूर्ख हैं कि उन्होंने कुछ ज़मींदारों या तअल्लुकेदारोंको भी अपना प्रतिनिधि क़रार दिया था। इन दोनोंके हितोंका प्रायः वही सम्बन्ध रहता है जो छत्तीस (३६) के अड्डोंमें तीन और छः का होता है। नतीजा यह हुआ कि किसानोंके अधिकांश प्रतिनिधियोंकी अकर्मण्यता और तअल्लुक़ेदारोंकी कृपाकी बदौलत उस क़ानूनमें कुछ ऐसी तरमीमें हो गयीं जो किसानोंके लिए बहुत ही घातक हैं। उदाहरणके लिए दफा ६२ (अ) और ८८ (अ) देखिये। इन दफ़ाओंकी सहायतासे, दो वर्षसे अधिकके लिए, यदि कोई किसान अपने जोतमेंसे चावलभर भी ज़मीन शिकमी उठा दे तो वह बेदख़ल किया जा सकता है। यह नियम अवधके कोई ५० सदी किसानोंके लिए घातक और ज़मींदारोंके लिए तरह-तरहसे लाभदायक है; क्योंकि अवधमें उच्च कुलके अधिकांश किसान हल-बैल नहीं रखते। वे अपना जोत औरोंको शिकमी उठा देते हैं और इस तरह जो आधा अन्न और चारा उन्हें मिल जाता है उसीसे सन्तोष करते हैं। ऐसे सभी किसानोंको बेदखल़ करके उनकी जीविका अपहरण करनेका दरवाज़ा अब खुल गया है। गवर्नमेंट यह बखूबी जानती है कि नयी तरमीमोंमेंसे कुछ तरमीमें ऐसी हैं जो किसानोंपर ग़जब ढानेवाली हैं। इसीसे रेवेन्यू बोर्डने अवधके
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किसानोंका सङ्घटन