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लेखाञ्जलि

और धर्म्मान्धताके शिकार हो रहे हैं। उनकी प्रेरणासे वे भी परस्पर मिलकर बहुधा कोई काम नहीं करते। इससे जो हानि हो रही है वह प्रत्यक्ष ही है। उसपर विशद रूपसे टीका-टिप्पणी करनेकी ज़रूरत नहीं।

अच्छा तो जब शिक्षितोंका यह हाल है तब अशिक्षितोंका कहना ही क्या। वे बेचारे तो अज्ञानके अन्धकूपमें पड़े हुए अपने दुभाग्यको रो रहे हैं। संगठन करनेकी शक्ति उनमें कहाँ। इन अशिक्षितोंका अधिकांश देहातमें रहता है। और देहाती ही खेती अधिक करते हैं। इन खेतिहरोंकी संख्या किसीने फ़ी सदी ९०, किसीने ८०, किसीने ७५ निश्चित की है। पिछली संख्याको मर्दुमशुमारीके प्रधान सरकारी अफसरने भी ठीक माना है। अतएव यह कहना चाहिये कि इस देशकी आबादीका अधिक हिस्सा देहातहीमें रहता है और ७५ फ़ी सदी मनुष्य खेती करके ही किसी तरह अपना पेट पालते हैं। इन खेतिहरोंकी आर्थिक अवस्था अत्यन्त क्षीण है। उन्हें मुश्किलसे एक वक्त रोटी मिलती है। जो शासक शिमला और नैनीताल, बम्बई और कलकत्ते में बैठे हुए भारतकी सधनता—वृद्धिका स्वप्न देखा करते हैं, पर जिन्होंने अपने शासनकालमें कभी एक दफे भी गाँवोंमें जाकर इन लोगोंकी आर्थिक अवस्थाका निरीक्षण नहीं किया, उनकी बातोंको प्रलाप-मात्र समझकर उनपर ध्यान न देना चाहिये। यह निश्चित है कि इस देशकी आबादीका कम-से-कम ७५ फ़ी सदी अंश दारुण दारिद्र भोग कर रहा है।

यह देश इने-गिने अंगरेजी पढ़े हुए वकीलों, बारिस्टरों, मास्टरों,