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लेखाञ्जलि

उदाहरण मिलेंगे जिनसे जन-समुदाय किंवा प्रजाजनोंकी अबाध सत्ताका अस्तित्व सूचित होता है। गणतन्त्र या प्रजासत्ताक राज्य न होनेपर भी प्रजाकी प्रभुता, यहाँ, इस देशमें, किसी समय, इतनी प्रबल थी कि प्रजा दुराचारी नरेशोंको राजासनसे गिरा तक देती थी। किसी भी राजाको राजासन-प्राप्ति तभी हो सकती थी जब उसका अनुमोदन प्रजा करती थी। मतलब यह कि गण-तन्त्र-राज्योंहीमें नहीं, राजतन्त्र-राज्योंमें भी प्रजा ही राजाको बना या बिगाड़ सकती थी।

परन्तु दैवयोगसे उन पुरानी प्रथाओं और पुरानी सत्ताओंको जब स्वयं भारतवासी ही भूल-सा गये हैं तब हमारे शासक उनके अस्तित्वका अस्वीकार करें तो कोई आश्चर्य नहीं। जहाँ हमलोगोंने अपने और कितने ही गुणोंका त्याग और विस्मरण कर दिया है तहाँ उनमेंसे यह भी एक है।

शासकों और उनके देशवासी पण्डितोंने जब यह कहना शुरू किया कि भारतमें कभी प्रजातन्त्र-प्रणाली प्रचलित न थी तब भारतवासी विद्वानोंने बड़े-बड़े लेख और पुस्तकें लिखकर उनकी इस कल्पनाका खण्डन किया और इस बातको सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि किसी समय यहाँ बड़े-बड़े प्रजातंत्र-राज्य थे। स्वराज्य-सञ्चालनकी चर्चा तो बहुत पहलेहीसे हो रही थी। अब उसने और भी जोर पकड़ा। गवर्नमेन्टपर दबाव-पर-दबाव डाला गया कि अभी और कुछ नहीं करते तो पुरानी पञ्चायतोंकी जगह नयी पञ्चायतें ही क़ायम कर दो और उन्हें दीवानी, फ़ौजदारी और सफ़ाईके सम्बन्धके