पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/१५०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४२
लेखाञ्जलि

इस बातकी जाँच नहीं करता कि उसमें ऐसा कौन-सा तत्त्व है जिसके कारण उसने उसमें उस रोगके नाशकी शक्ति विद्यमान मान ली। नये-नये ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने इस तरहकी सैकड़ों ओषधियों का उल्लेख, अपने अनुभवके बलपर, किया है। उनके उसी उतने अनुभवकी बदौलत लोग, आजतक, केवल सुनी-सुनायी बातोंपर विश्वास करके, अनेक ओषधियों में अनेक रोग-नाशक गुणोंकी कल्पना करते चले आ रहे हैं। तथापि वे यह नहीं बतला सकते कि क्यों—किस आधारपर—उन्होंने उन रोगोंको दूर करनेकी शक्ति उन ओषधियोंमें मान ली है। इस तरहकी कच्ची कल्पनासे वे डाक्टरोंको कायल नहीं कर सकते। और जबतक वे ऐसा नहीं कर सकने तबतक वे यह आशा भी नहीं कर सकते कि सुशिक्षित डाक्टर और सरकारी दवाखाने, केवल उनके कथनपर विश्वास करके, तिब्बी और आयुर्वेदिक दवाएं काममें लावेंगे। उन्हें आप अपनी दवाओंके गुणोंके वैज्ञानिक प्रमाण दीजिये। फिर देखिये, वे उनका प्रयोग करते हैं या नहीं।

खुशीकी बात है, आजतक अनेक शिक्षा प्राप्त डाक्टरों और विज्ञानवेत्ताओंने स्वदेशी ओषधियोंके विषयमें बहुत-कुछ जाँच-पड़ताल की है और कितनी ही पुस्तकें और लेख भी लिख डाले हैं। आजसे सौ सवा सौ वर्ष पूर्व सर विलियम्स जोन्सने इस कामका सूत्रपात किया था। उन्होंने कुछ पौधोंपर एक पुस्तक लिखी है। उनके बाद, १८१३ ईसवीमें, जान फ्लेमिंगने एक बड़ी-सी सूची प्रकाशित का। उसमें उन्होंने उन पौधोंका वर्णन किया जो दवाके काम आते