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देशी ओषधियोंकी परीक्षा और निर्माण

हैं। उनकी और उनके सहायक कर्मचारियोंकी तनख्वाह और दूसरे ख़र्च वे अँगरेज़ देते हैं जो जूट, चाय और खानोंका व्यवसाय करते हैं। कुछ सहायता गवर्नमेंट आव् इंडिया भी देती है। स्कूलमें जितने प्रोफेसर (अध्यापक) और अन्य कर्मचारी हैं उनके ख़र्चका अधिकांश बङ्गालकी गवर्नमेंट अपने ख़ज़ानेसे देनी है। इसके सिवा इस स्कूलमें कुछ विद्वान् छात्र ऐसे भी रहते हैं जो भिन्न-भिन्न विषयोंकी खोज और जाँच करते हैं। उन्हें छात्रवृत्तियाँ मिलती हैं। महाराजा दरभङ्गा और मित्र नामके एक महाशयकी धर्मपत्नीके द्वारा भी दो छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। डेविड यूल नामके एक धनी अँगरेज़ भी इसकी सहायता करते हैं।

अभी, हालमें, इस स्कूलकी वार्षिक रिपोर्ट निकली है। उसका सम्बन्ध १९२२ ईसवीसे है। उसके पाठसे सूचित होता है कि यह स्कूल अपना काम सफलतापूर्वक कर रहा है। शिक्षाके साथ-ही-साथ खोजका काम भी होता है। उष्णदेशोंमें होनेवाले रोगोंके सम्बन्धको शिक्षा पानेवाले २८ छात्रोंमें, रिपोर्ट के साल, १९ छात्र पास हुए। सफ़ाई और तन्दुरुस्तीसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंकी शिक्षा प्राप्त करनेकी ओर लोगोंका कम ध्यान है। इसीसे इस स्कूल में इस श्रेणीके छात्र बहुत कम भरती हुए हैं। पर इन विषयोंकी जो शिक्षा यहाँ दी जाती है वह बहुत उच्च है और विलायतमें दी जानेवाली शिक्षासे किसी तरह कम नहीं। जो लोग इस शिक्षामें "पास" होते हैं उनको डी॰ पी॰ एच॰ (D. P. H.) की पदवी मिलती है।

अब इसमें एक अजायबघर खोलनेकी भी तजवीज़ हो रही है।