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जापान और भारतमें शिक्षाका तारतम्य

लाभ भी बहुत उठाते हैं। वे इनका महत्व समझते हैं। अतएव मध्यवित्तके प्रायः सभी लोग अपने बच्चोंको इन स्कूलोंमें पढ़ने भेजते हैं। नतीजा यह हुआ है कि पिछले दसही वर्षाोंमें इन स्कूलोंकी संख्या दूनी हो गयी है। परन्तु भारतका यह हाल है कि प्रारम्भिक मदरसोंके बाद केवल वे स्कूल हैं जिन्हें मिडिल स्कूल कहते हैं। उनमें भी प्रायः उसी तरहकी शिक्षा दी जाती है जिस तरहकी कि प्रारम्भिक मदरसांमें दी जाती है। जो बच्चे प्राथमिक मदरसांकी शिक्षा समाप्त कर चुकते हैं उनमेंसे फ़ी सदी १० से अधिक बच्चे इन मिडिल मदरसों में नहीं जाते। फल यह होता है कि उनमेंसे ९० फ़ी सदी घर ही बैठ रहते हैं और देश तथा अपने कुटुम्बकी अर्थहीनताकी वृद्धि करते हैं। यदि भारतमें भी इस तरहके स्कूल खुल जाते तो जो बच्चे प्रारम्भिक मदरसे छोड़कर घर बैठ रहते हैं उनसे बहुतेरे इन स्कूलों में भरती होकर चार पैसे पैदा करने योग्य अवश्य हो जाते।

अब ज़रा शिक्षा सम्बन्धी खर्चका हिसाब भी देख लीजिये। अपने देश, अभागे भारतको, गवर्नमेंट सब प्रकारकी शिक्षाके लिए सालमें कुछ ही कम १० करोड़ रुपया खर्च करती है अर्थात् आबादीके लेहाजसे फ़ी आदमी कोई ६ आने खर्च करके सरकार भारतवासियोंको शिक्षा देती है। अच्छा तो इन्हीं भारतवासियोंसे करके रूपमें सरकारका सालमें क्या मिलता है। जनाबे आली, उसे उनसे २ अरब २२ करोड़ रुपयेसे कम नहीं मिलता। अर्थात् हम लोगोंसे इतना रुपया वसूल करके उसमेंसे फी सदी पाँच ही रुपया वह मुश्किल हमारी शिक्षाके लिए खर्च करता है। बाकी रुपया यह